Book Title: Arhat Vachan 2001 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 57
________________ आंखों को तीखा एवं निश्चित स्थान से बाहर तक निकाला है, पुतलियां छोटे व कटाक्ष रेखा कर्णपर्यन्त अंकित की गई हैं। प्राय: सवा चश्म चेहरे हैं। कान गोलाकार छोटे बनाये गये हैं। कटि भाग सामान्य तथा कृश एवं ग्रीवा पतली है। नारियों तथा कुछ पुरुषाकृतियों को आभूषणों से अलंकृत किया गया है। कानों में बड़े चक्राकार विशाल कर्णफल, हाथों में चूड़ियां, नासिकों में मोती की छोटी पॉगड़ी एवं भाल पर पर टीका भी अंकित है। चित्रों की रेखायें गहरी, पतली और कहीं-कहीं मोटी हैं, किन्तु वे सर्वत्र सधी हुई हैं। पोथी चित्रों को रंगों द्वारा और अधिक आकर्षक बनाया है। सर्वत्र गहरे नीले, लाल, हरे, पीले व सफेद रंग का प्रयोग किया गया है। रंगों के प्रयोग में मौलिकता का ध्यान रखा गया है। रंगों के प्रयोग के विषय में डॉ. राजाराम जी लिखते हैं - चित्रों में प्राय: मौलिक रंगों का ही प्रयोग है जैसे लाल, पीला, हरा, काला, सफेद। चित्रों की पृष्ठभूमि में लाल एवं पीले रंगों का प्रयोग है, कहीं-कहीं हरे रंग का भी प्रयोग है। रंग बहुत गहरे व चमकीले हैं।26 जैन अपभ्रंश शैली के इन पाँचों रंगों का जैन धर्म में आध्यात्मिक व प्रतीकात्मक अर्थ है। यह पाँच रंग श्वेत, लाल, पीला, हरा, गहरा नीला या काला क्रमश: पंचपरमेष्ठी अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु के गुणों के प्रतीकात्मक रंग है। वहीं यह पांच रंग जैन धर्म के चौबीस तीर्थकर के शरीर वर्ण भी हैं। जिनका उल्लेख हमें जैन शास्त्रों में देखने को मिलता है।28 चौबीस तीर्थंकर के वर्ण स्वरूप दोहा प्रसिद्ध दो गोरे, दो सांवले, दो हरियल, दो लाल, सोलह कंचन वर्ण वंदो आठों धाम। अर्थात् दो श्वेत रंग के हैं, दो श्याम रंग के हैं, दो लाल रंग के सोलह तीर्थकर का रंग पीले तपते स्वर्ण के समान है। इन पांच रंगों का हमारे आंतरिक एवं बाह्य विकास में महत्वपूर्ण योगदान है जिनका लौकिक व पारलौकिक जीवन पर विशेष प्रभाव पड़ता है। अपभ्रंश शैली के सबसे उत्कृष्ट उदाहरण कागज की पोथियों पासणाह चरिउ, जसहर चरिउ व संतिणाह चरिउ में देखने को मिलते हैं। इन पोथी चित्रों में अलंकरण एवं बाह्य सौन्दर्य के स्थान पर आध्यात्मिकता भावना एवं धर्मवृत्ति की छाप मुख्यतया स्पष्ट रूप से दर्शायी गई धार्मिक भावना की तष्टि हेत चित्रकारों ने काव्य को आधार बनाकर चित्रण किया है। आश्रयदाताओं के निर्देशानुसार काव्य चित्रण पर कलाकार यश और अर्थ दोनों उपार्जित करते रहे।29 पोथी चित्र के विषय में डॉ. रामनाथ का मत है कि यह स्मरणीय है कि चित्रित काव्य की प्रतियां विशुद्ध धार्मिक भावना से प्रेरित होकर बनाई जाती थी। धनवान लोग इन्हें बनवाकर जैन साधुओं को समर्पित कर देते थे। इस कार्य को पुण्य कार्य माना जाता था।30 तोमर कालीन महाकवि रइधू के यह सचित्र पोथी चित्र कला जगत की अमूल्य निधि है। यह दुर्भाग्य की बात है कि ग्वालियर राज्य में लिखित एवं चित्रित ग्रंथ ग्वालियर से बाहर सुरक्षित है। यह पोथी चित्र तत्कालीन समय में चित्रकला में विकास को दर्शाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अर्हत् वचन, अप्रैल 2001 55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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