Book Title: Arhat Vachan 2001 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 38
________________ लिये दीनबन्धु के रूप में नवमें अवतार होंगे, उनका स्तवन करो। प्रभाष पुराण के अनुसार कैलाश और विमल पर रमण करने वाले ऋषभ जिनेश्वर का आना अवतार हैं, वे सर्वज्ञ और शिव हैं। ___ 'कैलाशो विमलेरम्मे वृषभोयं जिनेश्वरः चकार स्वावतारं च सर्वज्ञ: सर्वज्ञ: शिव:'2 जैन अचार्य जिनसेन ने ऋषभदेव को शिव के रूप में स्वीकार किया है। इस संबंध में निम्न पद उल्लेखनीय है - 'त्वं ब्रहमा परमज्योति स्वत्वं प्रभुष्णु रजोरजा: त्वमादिदेवो देवानाम अधिदेवो महेश्वर:'3 अर्थात हे ऋषभदेव! आप ब्रह्मा हैं, परम ज्योति स्वरूप हैं, समर्थ हैं, पाप - रहित हैं, प्रथम तीर्थकर हैं और देवों के भी अधिदेव महेश्वर (शिव) हैं। जैन साहित्य के महाग्रन्थ धवला, भक्तामर स्तोत्र आदि में भी भगवान ऋषभदेव को त्रिशूलयुक्त शिव के रूप में 'लंकृत कर स्वीकार किया है। जिनेन्द्र रूद्राष्टक में पद 1 से 7 तक उनकी रूद्र के स्तुति की गई है जिसका उल्लेख 'पउम परिउ' के मंगलाचरण में हुआ है। जैन मान्यतानुसार जब ऋषभदेव गर्भ में आये तब स्वर्णादि की वर्षा हुई थी। इस कारण आचार्य जिनसेन ने महापुराण में ऋषभदेव को हिरण्यगर्भ कहा ऋग्वेद में भी कहा गया है कि पहले हिरण्यगर्भ हुए, वह प्राणी मात्र के स्वामी थे। ऋग्वेद की ऋचा इस प्रकार है - हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत। सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मैदेवाय हविषाविधेय।।' महाभारत शान्ति पर्व में हिरण्यगर्भ को योग का वक्ता स्वीकारते हए कहा है - 'हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता: नान्य: पुरातनः । अर्थात् हिरण्यगर्भ योगमार्ग के प्रवर्तक हैं अन्य कोई उनसे पुरातन नहीं। महापुराण एवं श्रीमद्भागवत के अनुसार ऋषभदेव महान योगी थे। इससे यह ध्वनित होता है कि ऋषभदेव और हिरण्यगर्भ एक ही महापुरुष थे। ऋषभदेव को ऋग्वेद में वृषभ, रूद्र, शिश्नदेव और महादेव के नामों से स्वीकार किया गया है - 'त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीती महादेवो यानाविवेश॥ अर्थात् मन, वचन, काय तीनों योगों से संयत ऋषभदेव ने घोषणा की कि महादेव मयों में आवास करते हैं। ऋग्वेद में वात रसना, मुनियों की चर्चा वस्तुत: श्रमण - ऋषियों की ही चर्चा है जिसके प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव थे। अथर्ववेद में ऋषभदेव को प्रजापति परमेष्ठि, ब्रह्मा तथा सूर्य के समान तेजस्वी एवं प्रथम अहिंसक प्राणियों का राजा कहा है। बौद्ध ग्रन्थ आर्यमंजूश्री मूलकल्प में भी नाभिपुत्र ऋषभदेव और उनके पुत्र भरत को भारत के प्राचीनतम सम्राटों में गिना है और इस बात की पुष्टि की है कि ऋषभदेव जैन धर्म के आप्तदेव थे और उन्होंने हिमालय में सिद्धि प्राप्त की थी। वाराह पुराण में नाभिराय और मरूदेवी के पुत्र ऋषभदेव तथा उनके भरतादि सौ पुत्रों का कथन आया है। ऋषभदेव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र को हिमालय के दक्षिण वाला क्षेत्र दिया था। भरत के नाम पर ही भारतवर्ष पड़ा।12 लिंग पुराण3 में भी उक्त कथन की पुष्टि हुई है। स्कन्ध पुराण14 में ऋषभदेव के प्रताप एवं वैभव का वर्णन है। वायु पुराण'5 एवं ब्रह्माण्ड पुराण16 में ऋषभदेव के सम्बन्ध में कई पद्य हैं। कर्मपुराण17 में नाभि पुत्र ऋषभदेव को क्रांतिकारी के रूप में दर्शाया है। उनके भरतादि सौ पुत्र थे। अग्नि पुराण 36 अर्हत् वचन, अप्रैल 2001 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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