Book Title: Arhat Vachan 2001 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 39
________________ में महाराजा नाभि एवं उनके पुत्र ऋषभ का वर्णन है। इसके अनुसार ऋषभ ने अबने पुत्र भरत को राज्य देकर शालिग्राम से मुक्ति प्राप्त की। इस प्रकार ऋषभदेव वेद पुराण स्वीकृत पुरुष हैं। इस प्रकार ऋषभदेव को प्रजापति ब्रह्मा, रूद्र एवं शिव के रूप में सर्वत्र स्वीकार किया गया है। विष्णु के अष्टम / नवम अवतार तो वे निर्विवाद रूप से हैं ही रामायण में भगवान राम का यह कथन कि कोउ नहिं शिव समान प्रिय मोरे भी महत्वपूर्ण है जिसमें उन्होंने शिव को अपना अत्यन्त प्यारा निरूपित किया है इस कथन में भी विष्णु अवतारी राम एवं शिव में एकत्व का दर्शन होता है समग्र रूप से भगवान ऋषभदेव वस्तुस्वरूप की तीन शक्तियों अर्थात् उत्पत्ति, स्थिति व नाश के प्रतीक रूप ब्रह्मा, विष्णु, शिव स्वरूप हैं और आद्य पुरुष, आदि परमेश्वर भी हैं। एक ही व्यक्तित्व का भिन्न भिन्न निरूपण ऋषभदेव एवं शिव के रूप में किया गया प्रतीत होता है क्योंकि दोनों का जन्म, जीवन, साधना, साधना क्षेत्र कैलाश पर्वत है। दोनों का चिन्ह वृषभ (बैल) है जिसे नादिया कहते हैं। शिव त्रिशूलधारी हैं। ऋषभदेव भी सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप त्रिशूलधारी हैं। दोनों की प्राचीन मूर्तियों में त्रिशूल एवं बैल का चिन्ह अंकित है जिसकी पुष्टि मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा के अवशेषों से होती है। शिव ने त्रिशूल से अन्धकासुर का संहार किया। ऋषभदेव ने त्रिरत्नरूप शिव मार्ग से मोह रूप अंधकासुर का वध किया। ऋषभदेव अनंतज्ञान एवं आनंद के धनी हैं ऋषभदेव के समान शिव स्वयं आनन्द स्वरूप हैं। शिव सूर्य के धारक हैं जो अज्ञान विनाश होने का प्रतीक है। वे ज्ञान रूपी तृतीय नेत्र के धारक हैं। ऋषभदेव भी पूर्ण ज्ञान के सूर्य एवं सर्वज्ञ रूप तृतीय नेत्र के धारक हैं। ऋषभदेव एवं शिव दोनों ही जटाधारी हैं। अनंत ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् ऋषभदेव ने ज्ञान गंगा प्रवाहित कर जगत के जीवों को मोक्ष मार्ग बताया, यही भाव बोध शिव की जटाओं से गंगा अवतरण में छिपा है। ऋषभदेव ने मन, वचन, काय रूप त्रियोग से राग-द्वेष का नाश कर शिवत्व प्राप्त किया था। शिव के ललाट पर शोभित त्रिपुंड इसी त्रियोग का प्रतीक है। जन्म, जरा, मृत्यु यह तीनों दुःख रूप हैं इसके निवारण हेतु जैन पूजा पद्धति में जल समर्पित किया जाता है। शिव आराधना में भी जल समर्पण का विशेष स्थान है। शिव ने विषपान किया था इसका रहस्य भी ऋषभदेव की योगचर्चा में छिपा है। जल - के एक सौ एक नामों में अमृत और विष भी है शिवत्व की प्राप्ति हेतु शुभ अशुभ भाव रूप विभावी शक्तियों को नाश किया जाता है जो विषपान जैसा है। यही विभावी शक्तियाँ मनुष्य को निरन्तर आकुलतामय बनाये रखती है जो भूत पिशाचों की प्रतीक है। शिव ने इन्हें अपने वश में कर लिया था। ऋषभदेव ने भी शुभाशुभ भावों पर विजय प्राप्त कर शुद्धात्म स्वरूप प्राप्त किया था। भगवान ऋषभदेव ने काय योग द्वारा मन को आत्म सम्मुख कर आत्म साधना की थी । काय योग में मेरूदण्ड की साधना का महत्वपूर्ण स्थान है। यह तैंतीस पर्वों से बना है जिसमें पर्वत हो, उसे पर्व कहते हैं। मेरूदण्ड की शक्ति ही पर्वतराज की पुत्री या पार्वती है। इसकी स्वाभाविक गति शिवत्व की ओर है। पार्वती की शक्ति काय - योग रूप तप से ही जाग्रत होती है, भोग से नहीं ऋषभदेव ने 'काय योग धारण कर पार्वतीय - - - ( मेरूदण्ड) की शक्ति जाग्रत कर मन की विभाव कर्म शक्ति का संहार किया था। शिव पार्वती संबंध एवं शिव की संहारक शक्ति इसी सन्दर्भ में देखी जा सकती है जब विभाव शक्तियों का नाश हो जाता है तब आत्म पटल पर शिव सुख स्वरूप है। इस कारण जैन दर्शन में मोक्ष शिवगति और मोक्ष को शिवपुर कहा है। अर्हत् वचन, अप्रैल 2001 Jain Education International केवलसूर्य का उदय होता है, जो मार्ग को शिव मार्ग, मोक्ष - गति को For Private & Personal Use Only 37 www.jainelibrary.org

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