Book Title: Arhat Vachan 2001 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 29
________________ । अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर) वर्ष - 13, अंक - 2, अप्रैल 2001, 27 - 28 बौद्ध साहित्य के निगण्ठ नातपत्त - तीर्थंकर महावीर - डॉ. रमाकान्त जैन* ( RAINS साठवायरRDASHAIRAPE बौद्ध ग्रन्थ 'मज्झिम निकाय' से विदित होता है कि महात्मा गौतम बुद्ध के समय (ईसा पूर्व छठी शताब्दी में) पूर्वोत्तर भारत में उनके अतिरिक्त 6 अन्य प्रसिद्ध विचारक थे जिनकी प्रतिष्ठा श्रमण - संघ के नेता के रूप में थी। उनके नाम क्रमश: पूरण कास्सथ, मक्खलि गोसाल, अजित केशकम्बलिन, प्रकद्ध कच्चायन, संजय बेललिपुत्त और निगण्ठ नातपुत्त थे। इन विचारकों में से केवल गौतम बुद्ध, मक्खलि गोसाल और निगण्ठ नातपुत्त की परम्परायें उनके बाद भी चलीं। बुद्ध द्वारा प्रचारित बौद्धधर्म स्वयं अपने देश में तो कुछ समय के लिये लुप्त हो गया, परन्तु देश के बाहर दूर - दूर तक प्रचार पा गया। गोसाल का आजीवक सम्प्रदाय तीन सौ चार सौ वर्ष पर्यंत पूर्वी भारत में प्रभावशाली बना रहा। नातपुत्त की परम्परा अविच्छिन्न रूप से भारत के कोने-कोने में आज तक प्रभावी है और भारत - बाह्य । क्षेत्रों में भी उसका समय - समय पर प्रचार हुआ है। निगण्ठ नातपुत्त जैन परम्परा के चौबीसवें तथा अन्तिम तीर्थकर वर्द्धमान महावीर थे जो कि श्रमण संघ के अपने समकालीन नेताओं में ऊपर से वस्त्र त्यागी और अंतर से राग - द्वेष विमुक्त होने के कारण निगण्ठ (निर्ग्रन्थ) और क्षत्रिय जाति के ज्ञातृवंश में जन्म लेने के कारण नातपुत्त (ज्ञातपुत्र) के नाम से विख्यात थे। उनके अनुयायी साधु 'निगण्ठ' (निर्ग्रन्थ) नाम से पुकारे जाते थे और उनके गृहस्थ भक्त 'निगण्ठ सावक' (निग्रंथ श्रावक) कहलाते थे। दीर्घ निकाय में निगण्ठ नातपुत्त का संघ नेता, अनुयायियों वाले, गुरु, सुविख्यात प्रतिष्ठित दार्शनिक, जनमान्य, अनुभवी सन्यासी, ज्येष्ठ एवं वयोवृद्ध के रूप में परिचय दिया गया है। महात्मा बुद्ध ने अपने संवादों में जहाँ कहीं भी उनका उल्लेख किया है, बड़े आदर के साथ किया है। यह आश्चर्य की बात है कि यद्यपि निगण्ठ नातपुत्त और महात्मा बुद्ध समकालीन थे तथा एक ही प्रदेश और एक ही परम्परा के विचारक थे, तब भी उनमें परस्पर कभी प्रत्यक्ष भेंट होने का उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु इन दोनों ही विचारकों के जीवन में ऐसे कितने ही प्रसंग आये जब कि उन्हें एक दूसरे के विचार जानने और उन पर विचार करने की उत्सुकता हुई। बौद्ध ग्रन्थों से विदित होता है कि निर्ग्रन्थ साधुओं में दीर्घ तपस्वी और सत्यक तथा जैन श्रावकों में राजकुमार अभय, सेठ उपालि और लिच्छवि सरदार सीह (अपरनाम सिंह सेनापति) के माध्यम से यह विचार - विनिमय हुआ। बौद्ध साहित्य से निगण्ठ नातपुत्त के अनेक शिष्यों का पता चलता है। 'विशाखवत्थु' में बौद्ध श्राविका विशाखा के श्वसुर सेठ मृगार को उनका पक्का भक्त बतलाया गया है। 'अभयराज सुत्त' में महात्मा बुद्ध के भाई देवदत्त का भी उनसे प्रभावित शिष्य - सम होने का उल्लेख है। वैशाली के लिच्छवि उनके पक्के अनुयायी थे। इसका भी उल्लेख उक्त साहित्य में है। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार महात्मा बुद्ध के जीवनकाल में निगण्ठ नातपुत्त और उनके निगण्ठ अनुयायियों के भ्रमण और कार्य का क्षेत्र मुख्यतया अंग - मगध. वज्जि - लिच्छवि, काशी- कोसल और वत्स इत्यादि राज्य थे तथा इन राज्यों में भी उनकी गतिविधि के मुख्य केन्द्र राजगृह, नालन्दा, वैशाली और श्रावस्ती थे। उस समय उक्त स्थानों में से राजगृह अंग - मगध राज्य की, वैशाली लिच्छवियों की और श्रावस्ती काशी- कोसल राज्य की राजधानी थी। वैशाली के निकट कुण्डग्राम तो महावीर की जन्मभूमि ही थी, राजगृह के विपुलाचल पर उन्होंने * ज्योति निकज चार बाग रोडवेज बस स्टेशन के पीछे. लखनऊ-226004 (उ.प्र.)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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