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116 से 129 तक इन्द्रभूति गौतम तथा चरितनायक ( वर्धमान) का संवाद है। 130 से 341 तक इन्द्रभूति गौतम तथा 500 ब्राह्मण पुत्रों द्वारा दीक्षा ग्रहण तथा इन्द्रभूति गौतम पर चरितनायक के प्रभाव का वर्णन है। पद्य 142 से अंत तक तीर्थंकर वर्धमान के निर्वाणगमन का वर्णन है।
द्वितीय परिच्छेद में 1 से 170 पद्य तक वर्धमान महावीर के पूर्व भवों का चित्रण किया गया है। 171 से 187 तक वर्धमान महावीर के उपदेशों से प्रभावित चतुर्विध संघ के प्रमाण का निरूपण तथा निर्वाण प्राप्ति का वर्णन है। अन्त में 18 पद्यों में ग्रन्थकार मुनि पद्मनन्दि का आत्मवृत्त वर्णित है। तदनुसार इनका नाम मनसुख था तथा दीक्षोपरान्त ये पद्मनन्दि के नाम से प्रसिद्ध हुए । इसमें कवि ने अपने वंश वृत्त का भी उल्लेख किया है। तदनुसार इनके पितामह का नाम सोमदेव तथा पितामही का नाम प्रेमा था। पिता का नाम हरिराज तथा माता का नाम सातो था ।
'वर्धमानचरितम्' वर्धमान महावीर के कल्पस्थायी उदात्त चरित से विभूषित होने के कारण शाश्वत साहित्य की कोटि में परिगणना के योग्य हैं। उदात्तचरित के अनुरूप यहाँ शान्तरस' का अत्यन्त रमणीय परिपाक हुआ है। त्रिपृष्ठ एवं अश्वग्रीव के युद्ध प्रसंग में वीररस 2 की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। रौद्र, श्रृंगारादि, रस अंग रूप में विद्यमान है। यद्यपि इस काव्य में प्रसादगुण की व्यापकता है तथापि माधुर्य और ओजगुण की स्थिति भी यत्र तत्र दिखाई देती है । वैदर्भी रीति प्रधान इस काव्य में गौड़ी व पांचाली रीति का भी अनेकशः प्रयोग हुआ है । यत्र तत्र उपमा, उत्प्रेक्षा 2, अनुप्रासादि 13 अलंकारों के सहज प्रयोग से काव्य सौन्दर्य में अभिवृद्धि हुई है। उपमा कवि का प्रिय अलंकार है। अनुष्टुप् बहुल काव्य में यत्र तत्र शार्दूलविक्रीड़ित 14, स्रग्धरा 15, हरिणी 16, मालिनी 17 आदि छन्द भी प्रयुक्त हैं। इस काव्य की भाषा प्रासादिक तथा शैली प्रवाहपूर्ण है।
धर्म तथा आध्यात्म जैसे विषय तात्त्विक विषयों का अत्यन्त सरल भाषा में विवेचन किया गया है। वर्धमान महावीर के चरित्र के माध्यम से सांसारिक विषयासक्ति से मुक्ति प्रदान करना इस रचना का मुख्य उद्देश्य है। भगवान महावीर के लोकोपकारी माहात्म्य से मण्डित यह काव्य चरित्र चित्रण, भाव, भाषा और शैली आदि की दृष्टि से उत्कृष्ट रचना है। इसमें इतिहास और कल्पना का मंजुल मणिकांचन संयोग है।
श्री वर्धमानस्वामिचरितम् (श्रीपाद शास्त्री हसूरकर)
'श्रीवर्धमानस्वामिचरित्तम् नामक गद्यकाव्य के प्रणेता श्रीपाद शास्त्री हसूरकर बीसवीं शताब्दी के मूर्धन्य गद्यकार हैं। इनका जन्म 13 जून 1888 ई. में महाराष्ट्र के 'हसूरचम्पू' नामक गाँव में हुआ। 18 शैक्षणिक एवं साहित्यिक क्षेत्र में की गई विशिष्ट सेवाओं के कारण होलकर महाराज ने 24 नवम्बर 1923 ई. में 'पण्डितरत्न' की पदवी से अलंकृत किया। 19 जैन संस्कृत गद्य साहित्य के विकास में अपना अंशदान कर 20 अप्रैल 1974 को धारा नगरी में दिवंगत हो गये। अजैन होते हुए भी 'श्रीवर्धमास्वामिचरितम्' नामक गव्य काव्य का प्रणयन कर जैन संस्कृत साहित्य के विकास में शास्त्रीजी ने स्पृहणीय योगदान किया।
'श्रीवर्धमानस्वामिचरित्तम' में तीर्थंकर महावीर का आजन्म मोक्षप्राप्तिपर्यन्त जीवनवृत्त एवं लोकोपयोगी अलौकिक कार्य माहात्म्य का वर्णन है। 107 पृष्ठों में लिखित इस काव्य में 12 प्रकरण हैं। प्रथम प्रकरण 'उपोद्घात' के अन्तर्गत क्रमश: सभी धर्मों के मान्य तत्त्वों
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