Book Title: Anuyogdwar Sutram Tika
Author(s): Haribhadrasuri,
Publisher:
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीअनु० हारि.वृत्तौ असंभवी, संसारिणां जघन्यतोऽप्यौदयिकक्षायोपशमिकपरिणामिकभावत्रयोपेतत्वात् , तथापि भंगकरचनामात्रदर्शनार्थत्वाददुष्टः, एवमन्योऽप्य- पणनामानि संभवी वेदितव्य इति, अविरुद्धास्तु पंचदश एव सान्निपातिकभेदास्ते अत्रानधिकृता अपि प्रदेशान्तरे उपयोगिन इति सान्निपातिकसाम्याग्निदश्यते-'उदइयखओवसमिय परिणामियउत्ति गतिचउक्केवि / खययोगेणऽवि चउरो तयभावे उवसमेणंपि // 1 // उवसमसेढी एको केवलिणो बिइय तहेव सिद्भस्स / अविरुद्धसंनिवादित एमेते हुंति पन्नरस // 2 // ' औदयिकक्षायोपशम कपारणामिकसान्निपातिक एकैको गतिचतुकेऽपि, तद्यथा-उदएत्ति रइए खवसमियाई इंदियाइं परिणामियं जीवत्तं, जया खइयं समत्तं तदा ओदइयखओवसमखइयपारिणामिकनि-13 पन्नः सन्निपातिकः, एकको गतिचतुष्केषु, तद्यथा-उदएत्ति णेरइए खओवसमियांई इंदियाई खइयं समत्तं पारिणामिए जीवे, एवं तिर्यगादिष्वपि | वाच्यं, तिर्यक्ष्वपि क्षायिकसम्यग्दृष्टयः कृतभंगसंख्याऽन्यथाऽनुपपत्तेरिति भावनीयं, तदभावे क्षायिकाभावे चशब्दात् शेषत्रयभावे चौपशमि केनापि चत्वार एव, उपशममात्रस्य गतिचतुष्टयेऽपि भावात् 'ऊसरदेसं दड्रेलयं च विज्झाति वणदवो पप्प / इय मिच्छस्स अणुदए उवसमसम्म &! लहइ जीवो // 1 // ' अविशिष्योक्तत्वात , तथा 'उवसामियं तु सम्मत्तं / जो वा अकततिपुंजो अखवियमिच्छो लइह मम्म // 1 // मित्यत्र | श्रेणिव्यतिरेकेण विशिष्यवोक्तत्वात , अभिलाप: पूर्ववत् , नवरं क्षायिकसम्यक्त्वस्थाने ओवशमिकसम्मत्तेति वक्तव्यं, एते चाष्टौ भंगाः प्राक्तना श्चत्वार इति द्वादश, उपशमश्रेण्या एगो भङ्गस्तस्य मनुष्येष्वेव भावात् , अभिलाप: पूर्ववत्, नवरं मनुष्यविषय एव, केवलिनश्चैक एव-उद| इए मणुस्से खइयं समत्तं पारिणामिए जीवे, तथैव सिद्धस्स एक एव-खइयं समत्तं पारिणामिए जीवे, एवमेते त्रयो भंगाः सहिताः अविरुद्ध-* सान्निपातिकभेदाः पंचदश भवंति, कृतं प्रसंगेन / से तं सन्निवातिये नाम, योजना सर्वत्र कार्या, से तं छ णामे, गतं षडनाम / // 65 // 'से किं तं सत्त नामे' त्यादि ( 127-127 ) सप्तनाम्नि सप्त स्वराः प्रज्ञप्ताः, तंजहा-'सज्जे' त्यादि (*25-127), 'षड्जो रिषभो NCRC444 %9E%9 A 7. 6 For Private and Personal Use Only

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