Book Title: Anekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 45
________________ 42 अनेकान्त 61/1-2-3-4 गुरुओं को लिया है। जो दीक्षा से एक रात्रि भी छोटे हैं वे ऊनरात्रिक कहलाते हैं। यहाँ पर ऊनरात्रिक से जो तप में कनिष्ठ-लघु हैं, गुणों में लघु हैं और आयु में लघु है उन साधुओं में, अपने से छोटे मुनियों में, आर्यिकाओं में और श्रावक वर्गों में प्रमाद रहित मुनि को यथायोग्य विनय करना चाहिए। अर्थात् साधुओं के जो योग्य हो, आर्यिकाओं के जो योग्य हो, श्रावकों के जो योग्य हो और अन्यों के भी जो योग्य हो, वैसा ही करना चाहिए। विशेषार्थ में लिखा है कि यहाँ पर जो मुनियों द्वारा आर्यिकाओं की विनय है उसे नमस्कार नहीं समझना, प्रत्युत यथायोग्य शब्द से ऐसा समझना कि मुनिगण आर्यिकाओं का भी यथायोग्य आदर करें, क्योंकि 'यथायोग्य' पद उनके अनुरूप अर्थात् पदस्थ के अनुकूल विनय का वाचक है। उससे आदर सन्मान और बहुमान ही अर्थ सुघटित 3.6 आर्यिकाओं के गणधर - आर्यिकाओं को दीक्षा देना, उनकी शंकाओं का समाधान करना तथा उन्हें स्वाध्याय आदि करवाने के उद्देश्य से श्रमण को उनके संपर्क में यथासमय आना होता है। श्रमण संघ की इस व्यवस्था के अनुसार साधारण श्रमणों (मुनियों) की अकेले आर्यिकाओं से बातचीत आदि का निषेध है। आर्यिकाओं को प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि विधि संपन्न कराने के लिए मूलाचार के अनुसार गणधर मुनि की व्यवस्था होनी चाहिए। आर्यिकाओं के गणधर (आचार्य आदि विशेष) को कैसा होना चाहिए उसके विषय में आचार्य वट्टकेर लिखते हैं - जो धर्म के प्रेमी हैं, धर्म में दृढ़ हैं, संवेग भाव सहित हैं, पाप से भीरु हैं, शुद्धाचरण वाले हैं, शिष्यों के संग्रह और अनुग्रह में कुशल हैं और हमेशा ही पाप क्रिया की निवृत्ति से युक्त हैं, गंभीर हैं, स्थिरचित्त हैं, मित बोलने वाले हैं, किंचित् कुतूहल करते हैं, चिरदीक्षित हैं, तत्त्वों के ज्ञाता हैं - ऐसे मुनि आर्यिकाओं के आचार्य होते हैं : पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवज्जभीरु परिसुद्धो। संगहणुग्गहकुसलो सददं सारक्खणाजुत्तो।। गंभीरो दुद्धरिसो मिदवादी अप्पकोदुहल्लो य। चिरपव्वइदो गिहिदत्यो अज्जाणं गणधरो होदि।। (गाथा 183-184) यदि आचार्य इन गुणों से रहित हैं और आर्यिकाओं के गणधर बनते हैं तो क्या

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