Book Title: Anekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 138
________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 19. "स्व-पर कारणों से होने वाली उत्पादव्ययरूप पर्यायों द्वारा जो प्राप्त किया जाता है वह द्रव्य है (उभयहेतुकोत्पादविगमै तैस्तैः स्वपर्यायैः द्रूयन्ते गम्यन्ते इति द्रव्यम्); अथवा उन निज पर्यायों को जो प्राप्त करते हैं वे द्रव्य हैं (द्रवन्ति गच्छन्ति तान् पर्यायानिति द्रव्याणि) । यद्यपि पर्यायें या उत्पाद-व्यय उस द्रव्य से अभिन्न होते हैं, तथापि कर्ता और कर्म में भेदविवक्षा करके 'द्रवति गच्छति' यह निर्देश बन जाता है। जिस समय द्रव्य को कर्म और पर्यायों को कर्ता बनाते हैं तब कर्म में द्रु' धातु से 'यत्' प्रत्यय हो जाता है, और जब द्रव्य को कर्ता मानते हैं तब बहुलापेक्षयाकर्ता में 'यत्' प्रत्यय हो जाता है। तात्पर्य यह कि उत्पाद और विनाश आदि अनेक पर्यायों के होते रहने पर भी, जो सान्ततिक द्रव्यदृष्टि से गमन करता जाए वह द्रव्य है ( नानापर्यायोत्पादविनाशाविच्छेदेऽपि सान्ततिकद्रव्यार्थादेशवशेन द्रवणात् गमनात् संप्रत्ययाद् द्रव्याणि) ।" [राजवार्तिक, अ० 5, सू० 2, वार्तिक 1, प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य के 'हिन्दी-सार' का संक्षेप; भारतीय ज्ञानपीठ, पाँचवां सं०, 1999; मूल संस्कृत, पृ० 436, हिन्दीसार, पृ० 655-56 ] 135 भट्ट अकलंकदेव के इस विवेचन से पूर्णतः सहमत, महान तार्किक आचार्य विद्यानन्दि इतना और जोडना चाहते है कि "द्रव्य और पर्यायों के बीच कथंचित् भेद एवं कथंचित् अभेद मानने वाले स्याद्वादियों के यहाँ ही 'द्रव्य' शब्द का कर्म व कर्ता, दोनों साधनों में निष्पन्न होने में कोई विरोध नहीं आता; किन्तु सर्वथा एकान्तवादी (यानी सर्वथा भेदवादी, या सर्वथा अभेदवादी) लोगों के यहाँ ऐसा होना असम्भव है, उनके यहाॅ तो विरोध हो जाने से वह कर्मपना और कर्तृपना एक में कभी नहीं बन पाता है: कर्मकर्तृसाधनत्वोपपत्तेः द्रव्यशब्दस्य स्याद्वादिनां विरोधानवतारात् । सर्वथैकान्तवादिनां तु तदनुपपत्तिर्विरोधात् ।" (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक. अ० 5 सू० 2, श्री गांधी नाथारंग जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, 1918, पृ० 394 ) 20. देखिय सन्दर्भ 14 व 15. 21. देखिये (क) सन्दर्भ 15, पृ० 310, (ख) सन्दर्भ 14, पृ० 320. 22. transgress = अतिक्रमण करना (अँगरेजी - हिन्दी कोश, फादर कामिल बुल्के, एस० चन्द एण्ड कम्पनी, तृ० सं०, 1997, पृ० 755) 23. मोनियर्-विलियम्स के अनुसार, 'क्रमणम्' शब्द का उक्त अर्थ में प्रयोग वाल्मीकि की रामायण में, तथा महाभारत भी पाया जाता है। इन महाकाव्यों का रचनाकाल भारतविद्याविदों (Indologists) द्वारा ईसापूर्व पांचवीं शती या उसके आस-पास " अनुमानित है । (देखिये History of Philosophy : Eastern and Western, Eds. : Dr. S. Radhakrishnan and others, George Allen & Unwin, 1952, Vol. I, pp. 75-106) 24. इस समास - विग्रह को करते हुए, आचार्य अमृतचन्द्र के पहले ही उद्धृत किये जा चुके वाक्यांश "व्यतिरेकाणां अन्वय- अनतिक्रमणात्" का ही अनुसरण किया गया है। 25. ऐसे ही, सदृश प्रकरण में, प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार, गाथा 99 की व्याख्या . मे, आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं. "स्वभावत एव त्रिलक्षणायां परिणामपद्धतौ दुर्ललितस्य स्वभावानतिक्रमात् ..." अर्थात् स्वभाव से ही उत्पाद-व्यय-धौव्यरूप त्रिलक्षणात्मक परिणामपद्धति मे प्रवर्तमान द्रव्य, स्वभाव का अतिक्रम नहीं करता । 26. आप्तमीमांसा में स्वामी समन्तभद्र कहते हैं : द्रव्यपर्याययोरैक्य तयोरव्यतिरेकतः ।

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