Book Title: Anekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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अनेकान्त 61.1-2-3-4
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79. ऐतरेयब्राह्मण, 7.18
80. ऋग्वेद, 3.14.1-2 81. विधुद्रथः सहसस्पुत्रो अग्निः शोचिष्केश: पृथिव्यां पाजो अश्रेत्।। (वही. 3.14.1) 82. अद्रिभिः सुतः पवते गभस्त्यावृषायत नभसा वेपते मती।
स मोदते नसते साधते गिरा नेनिक्ते अप्मु, यजते परीमणि।। (वही, 9.71.3) 83. अंहोमुचं वृषभं यज्ञियानां विराजन्तं प्रथममध्वराणाम्। (अथर्ववेद, 19.42.4) 84 ऋग्वेद, 1.126.
2 8 5. अथर्ववेद, 10.5.18 86. ऋग्वेद, 2.33. ५7 वहीं, 2.33 4
8 8. वही, 2.33.8 89. वही, 2.33.6 90. वही. 2.33.15
५. वही.2.33.15 92 गोकल प्रमाद जैन, 'ऋषभदेव : हिरण्यगर्भ सृक्त के आराध्य', पूर्वोक्त, पृष्ठ 107-8 93. 'हिरण्यगर्भः - कशब्दाभिधेयः प्रजापतिर्देवता।' - सायणभाष्य, ऋग्वेद, 10-121.1 94. ऋग्वेद, 10 1211 95. वही, 10.121.
7 9 6. वही, 10.121.10 97. गाकुल प्रसाद जैन, 'ऋषभदेव : हिरण्यगर्भ सूक्त के आराध्य', पूर्वोक्त, पृष्ठ ।।। 98 ऋग्वेद, 10.121.1 (99. सांख्यस्य वक्ता कपिलः परमर्षि स: उच्यते।
हिरण्यगर्भो योगस्य वत्ता नान्यः पुरातनः।। - महा०, शान्ति०, पूना संस्करण, 337.60 100. पातंजलयोगसूत्रवृनि, 1.1 101 महाभारत, शान्तिपर्व, 342.96
102. भागवतपुराण, 5.4.12 13 103. "What distinguishes the Bhagavata legend is the glorification of the Brahman
caste through Rsabha conspicuous by its absence in the Jain account. The Lord Visnu agrees to be born as the son of Nābhi to make that the words of the rtviks are not made futile as they are his mouth" पद्मनाभ, एस० जैनी,
"जिन ऋषभ पंज़ एन अवतार ऑफ विष्णु', पृर्वोक्त, पृष्ठ 322 104 जगदीश चन्द्र जैन, 'जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज,' वाराणसी, 1965,
पृष्ठ 29-30 105. वही, पृष्ठ 28 106. मुनि सुशील कुमार, 'जैन धर्म का इतिहास'. पृष्ठ 3 107. मोहन चन्द, 'भारतीय दर्शन के सन्दर्भ में जैन महाकाव्यों द्वाग विचित मध्यकालीन
जैनंतर दार्शनिकवाद' (लेख), 'जैनदर्शनमीमांसा' खण्ड, 'आम्था और चिन्तन,'
पूर्वोक्त, पृष्ट 153-54 108. प्लवा ह्येते अदृढ़ा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म।
एतच्छ्यो यऽभिनन्दन्ति मूढा जरामृत्युं ते पुनग्वापि यान्न। मुण्ड०, 1.2.7 109. अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः।
जङ्घन्यमानाः परियान्ति मृढा अन्धेनैव नीयमानः यथा-या:!: मुण्ड० 1.2.8 110. कठोपनिषद्, 1.1.1- 4
1 11. कंनोपनिषद्, तृतीय खण्ड 112. दामोदर शास्त्री, 'जैनधर्म एवं आचार' (सम्पादकीय लेख), 'जैनधर्म एवं आचार'
खण्ड, 'आस्था और चिन्तन', पूर्वोक्त, पृष्ठ 3 113. दिवं यदि प्रार्थयसे वृथा श्रमः। - कुमारसम्भव, 5.45 114. "The Jainization of Brahmå in the person of Rşabha and the consequent
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