Book Title: Anekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 145
________________ 142 अनेकान्त 61/1-2-3-4 का उल्लेख किया गया है, अपितु इस शिला की आठ दिशाओं में दिक्पालों के आठ प्रतीक रखे जाने का भी विधान है। इनमें से आठवें दिक्पाल के लिए जिस प्रतीक का प्रयोग हुआ है, वह त्रिशूल है। यह शिला की सौभायिनी पर रक्खा जाता है। यहां त्रिशूल आठवें दिक्पाल ईशान के तांत्रिक चरित्र को व्यक्त करता है। वह वास्तव में इस बात को स्पष्ट कर देता है कि बौद्ध और जैन धर्मों में रत्नत्रय को प्रकट करने के लिए प्राचीन काल में - संभवतः कुशाणकाल से - जिस त्रिशूल की मान्यता चली आती है, वह जैनियों की धार्मिक अतत्कला में एक मौलिक तथ्य को लिये हुए है। इस सम्बन्ध में मथुरा कंकाली टीले से प्राप्त उस जिनमूर्ति को देखना आवश्यक होगा, जिसके पदस्थल के अग्र-भाग में उघाड़े हुए त्रिशूल पर रक्खे हुए धर्मचक्र की साधुजन पूजा कर रहे हैं। यह शैली बौद्धकला की उस प्राचीन शैली से बहुत कुछ मिलती-जुलती है, जिसमें स्वयं भगवान् बुद्ध का प्रतिनिधित्व करने के लिए धर्मचक्र का प्रयोग हुआ है। निःसन्देह वूल्हर के शब्दों में कह सकते हैं कि जैनियों की प्राचीन कला और बौद्धकला में विशेष अन्तर नहीं है। असली बात यह है कि कला ने कभी साम्प्रदायिक रूप धारण नहीं किया। दोनों ही धर्मो ने अपनी-अपनी कलाकृतियों में एक ही प्रकार के आभूषणों, प्रतीकों तथा भावनाओं का प्रयोग किया है। अन्तर केवल गौण बातों में है। जैन परम्परा में रत्नत्रय का प्रतीक सिद्ध व जीवन्मुक्त पुरुषों के तीन मुख्य गुणों - दर्शन, ज्ञान, चारित्र - को प्रकट करता है। बौद्ध परम्परा में यह त्रिशूल बुद्ध, धर्म और संघ, इन तीन तथ्यों का द्योतक है। यही भाव बौद्ध परम्परा में कभी-कभी त्रिकोणाकार रूप से, 'बील' के कथनानुसार, तथागत के शारीरिक रूप को व्यक्त करता है, और कभी-कभी त्रि-अक्षरात्मक शब्द 'ओम्' से व्यक्त किया गया है। ब्राह्मण परम्परा में यह त्रिशूल ब्रह्मा, विष्णु और शिव, इस त्रिमूर्ति का द्योतक है। बौद्ध रत्नत्रय के विभिन्न प्रतीक तक्षशिला के बौद्ध क्षेत्रों से, तथा कुशाणकाल के प्राचीन समय से मिलते हैं। धर्मचक्र मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त उक्त मूर्ति का अध्ययन हमें यह मानने को विवश करता है कि इस पर उत्कीर्ण चक्र उस धर्म-भावना का प्रतीक है जो प्राचीन तथा मध्यकालीन बौद्धधर्म में मान्य रही है। वैष्णव-कला में चक्र का प्रतीक स्वयं भगवान् विष्णु से घनिष्ठतया सम्बन्धित है। ईसा पूर्व की सातवीं सदी के चक्राङ्कित पुराने ठप्पे के (Punch-marked) सिक्के इस परम्परा की प्राचीनता सिद्ध करने में स्वयं स्पष्ट प्रमाण हैं। रत्नत्रय की भावना से सम्बन्धित

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