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अनेकान्त 61/1-2-3-4
ने उपर्युक्त मान्यता के सन्दर्भ में वातरशना मुनियों की श्रमण परम्परा पर भी एक नई बहस छेड़ दी है। उन्होंने भागवतपुराण के लेखक की इस दृष्टि से आलोचना भी की है कि उसने अपने समय के श्रमणों द्वारा पूज्य ऋषभदेव के जीवन चरित्र के साथ 'वातरशनमुनयः', 'श्रमण' और 'परमहंस' जैसी तीन शब्दावलियों का अनौचित्यपूर्ण प्रयोग करके बहुत बड़ी विसंगति को ही दर्शाया है। वास्तव में प्रो० जैनी सिद्धान्त रूप से यह स्वीकार नहीं करते कि वैदिक संहिताओं में निर्दिष्ट 'ऋषभ' शब्द किसी जैन तत्त्वनिष्ठा से जुड़ा शब्द है अथवा किसी व्यक्तिवाचक नाम का बोधक है। उनके मतानुसार वैदिक संहिताओं के किसी भी मंत्र में 'वातरशना मुनियों' से श्रमण शब्द का कोई सम्बन्ध नहीं है। उनका यह भी कथन है कि 'शतपथब्राह्मण' (14.7.1.22) तथा 'बृहदारण्यक उपनिषद्' (4.3.22) में सबसे पहले 'श्रमण' शब्द का प्रयोग हुआ है तथा 'परमहंस' का प्रयोग उससे भी बाद में होता है। परन्तु प्रो० जैनी की इस मान्यता के विरुद्ध जैन धर्माचार्यों और जैन इतिहास तथा संस्कृति के विद्वानों की एक लोकप्रिय अवधारणा रही है कि ऋग्वेद के 'केशीसूक्त' में वर्णित 'वातरशना' मुनियों का उल्लेख जैन श्रमण परम्परा का ही उल्लेख है, जबकि प्रो० जेनी का तर्क है कि इस सूक्त में कहीं भी 'ऋपभदेव' का उल्लेख नहीं मिलता तथा 'वातरशना' मुनियों के रूप में जो मात मुनियों के नाम गिनाए गए हैं वे नाम भी जैन परम्परा में मेल नहीं खाते हैं। उन्होंने ऋग्वेद आदि संहिताओं में प्रयुक्त 'ऋषभ' शब्द के व्यक्तिवाचक प्रयोगों पर भी सन्देह प्रकट किया है।"
वैदिक साहित्य में 'ऋषभ' सम्बन्धी उल्लेखों के बारे में प्रो० पद्मनाभ जैनी की उपर्युक्त आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए इस तथ्य की गम्भीरता से जांच पड़ताल आवश्यक हो जाती है कि वैदिक ऋचाओं के 'ऋषभ' सम्बन्धी वर्णन वस्तुतः जैन परम्परा का अनुमोदन करते हैं या वैदिक परम्परा का। परन्तु इससे पहले उन विद्वानों के मत की समीक्षा भी कर लेनी चाहिए जो यह मानते आए हैं कि वैदिक संहिताओं में श्रमण परम्परा का उल्लेख हुआ है।
आचार्य देवेन्द्र मुनि तथा जैन धर्म के अनेक विद्वानों की यह आम धारणा है कि ऋग्वेद के दशम मण्डल के 'केशी सूक्त' में जैन धर्म के आदि तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव और 'वातरशना' जैन श्रमण मुनियों की स्तुति की गई है।'' परन्तु इस सूक्त के भाष्यकार सायण का स्पष्ट कथन है कि केशस्थानीय रश्मियों के धारक होने के कारण 'केशी' अग्नि, वायु और सूर्य को कहते हैं - 'केशाः केशस्थानीया रश्मयः। तद्वन्तः केशिनोऽग्निर्वायुः सूर्यश्च।' आचार्य देवेन्द्र मुनि जी को सायण की यह व्याख्या स्वीकार्य नहीं क्योंकि भगवान् के केश-लांच की घटना के कारण 'केशी' की अवधारणा का इस सूक्त में कोई औचित्य सिद्ध नहीं