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अनेकान्त 61/1-2-3-4
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का जन्म हुआ। वैदिक पुराणों की मान्यता है कि इसी स्वायम्भुव मनु के वंश में उत्पन्न प्रियव्रत की शाखा में नाभिपुत्र ऋषभ का जन्म हुआ था, जिसकी पहचान विद्वान् जैनधर्म के प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव के साथ करते हैं। परन्तु वैदिक परम्परा के साक्ष्यों से सिद्ध यह होता है कि ऋषभ विराज (ब्रह्मा) के पुत्र थे। इसी विराजपुत्र 'ऋषभ वैराज' का ऋग्वेद में मंत्रद्रष्टा ऋषि के रूप में उल्लेख आया है।
महाभारत से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि प्रजापति विष्णु के इस मानसपुत्र ने संन्यासमार्ग को अपना कर श्रमण मुनियों की धर्मव्यवस्था स्थापित की थी।' महाभारत के अनुसार विरजा के पुत्र का नाम 'कीर्तिमान्' था। वह भी मोक्षमार्ग का ही अनुयायी बना। महाभारत के इस वर्णन से इतना तो स्पष्ट ही है कि भगवान् विष्णु के मानसपुत्र विरजा और उसके पुत्र कीर्तिमान् ने वैदिक श्रमण परम्परा (तपस्या मार्ग) का प्रवर्तन किया था। सम्भावना यह भी प्रतीत होती है कि 'ऋषभ वैराज' का एक अन्य नाम 'कीर्तिमान्' भी रहा होगा किन्तु इस सम्भावना की ऐतिहासिक रूप से पुष्टि करना असम्भव प्रतीत होता है क्योंकि स्वायम्भुव वंशावली स्वयं में अपूर्ण है; पर इतना तो निश्चित है कि वैदिक परम्परा में 'ऋषभ वैराज' संन्यास मार्ग (श्रमण परम्परा) के सिद्ध योगी थे। ऋग्वेद के साक्ष्य बताते हैं कि इन्होंने 'योगक्षेम' की सिद्धि अर्जित कर ली थी जिसके कारण इनके पूर्व विरोधी भी इनकी पाद सेवा के साथ-साथ जय-जयकार भी करने लगे थे, जैसा कि अन्तिम ऋचा से ध्वनित होता है। पर जैनधर्म के धरातल पर 'ऋषभ वैराज' की पहचान नाभिपुत्र 'ऋषभ' से करने में स्वायम्भुव मनु की वंशावली बाधक है। वैदिक तथा महाभारत की इतिहास-परम्परा के अनुसार ब्रह्मा के मानसपुत्र स्वायम्भुव मनु के साथ जैनों के आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव की अभिन्नता अथवा समकालिकता सिद्ध होनी आवश्यक है। परन्तु वैदिक पुराणों ने नाभिपुत्र ऋषभदेव को स्वायम्भुव मनु की पांचवी पीढ़ी में स्थान दिया है। उधर जैनाचार्य जिनसेन भी वैदिक परम्परानुमोदित 'ऋषभ वैराज' से पूर्णतः अवगत प्रतीत होते हैं इसलिए उन्होंने भगवान् ऋषभदेव के पर्यायवाची नामों में विरजा, नाभिज, नाभेय, ब्रह्मसम्भव, ब्रह्मात्मन्, स्वयंभू आदि का नामोल्लेख करते हुए एक ओर जहां वैदिक श्रमण परम्परा के साथ समरसतापूर्ण संवाद स्थापित किया, वहीं दूसरी ओर ध्वन्यात्मक शैली में यह संकेत भी करना चाहा कि वैदिक परम्परा में जो स्थान सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का है वही स्थान जैन परम्परा में आदि तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव का है। ऐक्ष्वाक वंशपरम्परा का साझा पूर्व इतिहास भी इसे प्रामाणिकता प्रदान करता है।