Book Title: Anekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 165
________________ 162 अनेकान्त 61/1-2-3-4 कहते हैं : "ब्रह्मा का ऋषभ के रूप में जैनीकरण, पुनः अवतार की अवधारणा से उन्हीं 'जिन' (ऋषभदेव) का वैष्णवीकरण, वस्तुतः दो प्रतिद्वन्द्वी धर्मों के मध्य अनुप्राणित रहने वाली समरसता की एक सुन्दर मिसाल है।''114 __ प्रो० जैनी का मत है कि स्वयं जैन परम्परा के आगमिक साहित्य में ऋषभदेव को प्रधानता के रूप में महत्त्व बहुत परवर्ती काल में दिया गया है। जैन आगम 'कल्पसूत्र' में ऋषभदेव का प्रथम तीर्थङ्कर व प्रथम राजा के अतिरिक्त उनके पंच कल्याणकों का भी यद्यपि उल्लेख मिलता है किन्तु उनका प्रधानता से वर्णन सर्वप्रथम भद्रबाहु द्वारा रचित 'आवश्यकनियुक्ति' में आया है।15 डॉ० जगदीश चन्द्र जैन के अनुसार चौबीस तीर्थङ्करों के सम्बन्ध में सबसे प्राचीन उल्लेख समवायाङ्ग, कल्पसूत्र और आवश्यकनियुक्ति में मिलता है। प्रो० जैनी ने वैदिक पुराणों में 'ऋषभावतार' की अवधारणा पर भी अनेक प्रकार की आशंकाएं प्रकट की हैं। वे कहते हैं कि जब भगवान् बुद्ध को विष्णु का अवतार मान लिया गया तो उनके ही समकालिक भगवान् महावीर, जो जैनधर्म के 24वें तीर्थङ्कर भी थे, अवतार नहीं माने गए और प्रथम तीर्थङ्कर को ही यह सम्मान दिया गया। इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण ब्राह्मण संस्कृति के साहित्य में भी भगवान् महावीर का उल्लेख नहीं मिलता।” इसका कारण यह बताया गया है कि भगवान् महावीर 'आत्मवादी' होने के कारण शायद वैदिक परम्परा के उतने विरोधी नहीं थे जितने कि 'अनात्मवादी' बुद्ध।18 परन्तु प्रो० जैनी द्वारा बताया गया यह कारण युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। वास्तव में वैदिक पुराणों के रचनाकारों के पास आदि सभ्यता से सम्बद्ध अयोध्या की ऐक्ष्वाक परम्परा का एक दीर्घकालीन इतिहास था जिसके आदि स्रष्टा भगवान् विष्णु थे। भगवान् ऋषभदेव तथा शाक्य गौतम बुद्ध का प्राचीन इतिहास भी इसी विष्णुमूलक ऐक्ष्वाक वंशपरम्परा से जुड़ा था। सम्भवतः इसी ऐतिहासिक अस्मिता बोध से अनुप्राणित होकर वैदिक पुराणकारों ने श्रमण परम्परा के दो महान् युगधर्म-प्रवर्तकों को विष्णु का अवतार मानकर दोनों धर्मों के मध्य धार्मिक सौहार्द की भावना को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया तथा भारतवर्ष के सांस्कृतिक इतिहास की एकता को भी मजबूत करना चाहा। पर ध्यान देने योग्य महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि वैदिक तथा श्रमण परम्परा की धार्मिक एकता और वैचारिक सौहार्द को मजबूत करने में जैन धर्माचार्यों द्वारा रचित पुराणों का भी योगदान कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। 'आदिपुराण' में भगवान् ऋषभदेव के लिए जिनसेनाचार्य ने 'हिरण्यगर्भ', 'प्रजापति', 'स्रष्टा', 'स्वयम्भू' आदि जिन अनेक विशेषणों का साभिप्राय प्रयोग किया है उनकी संगति बिठाते हुए पं० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य कहते हैं. कि भगवान् ऋषभदेव जब

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