Book Title: Anekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 185
________________ 182 अनेकान्त 61/1-2-3-4 इस प्रकार इक्ष्वाकुभूमि अयोध्या का इतिहास साक्षी है कि भगवान् आदिनाथ के काल से ही वैदिक तथा श्रमण संस्कृति का साझा इतिहास भारतवर्ष की 'गंगा-जमुनी' संस्कृति को सुदृढ़ करता आया है। धार्मिक सद्भाव की यह ऐतिहासिक धरोहर अयोध्या आचार्य श्री ज्ञानसागर जी के 'सर्वतीर्थवन्दना' के स्वरों से आज पुण्यक्षेत्र के रूप में अपनी गाथा स्वयं बखान कर रही है - कोशल देश कृपाल नयर अयोध्या नामह । नाभिराय वृषभेश भरत राय अधिकारह ॥ अन्य जिनेश अनेक सगर चक्राधिप मंडित । दशरथ सुत रघुवीर लक्ष्मण रिपुकुल खंडित । जिनवर भवन प्रचंड तिहां पुण्यक्षेत्र जागी जाणिये । ब्रह्म ज्ञानसागर वदति श्री जिनवृषभ वखाणिये ।। सन्दर्भ : 1. अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग-2, पृष्ठ 572 2. वाल्मीकिरामायण, बालकाण्ड, 5.6; वायुपुराण, उत्तरार्द्ध, 26.8 3. आदिपुराण, 16.264; त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, 1.2.656-59 4. मोहन चन्द, 'जैन प्राच्य विद्याएं' (सम्पादकीय लेख) 'जैन प्राच्य विद्या' खण्ड, आस्था और चिन्तन' - आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ, प्रधान सम्पादक रमेश चन्द्र गुप्त, पृष्ठ 6 5. मुनि सुशील कुमार, 'जैन धर्म का इतिहास', कलकत्ता, संवत् 2016, पृष्ठ 3 आचार्य देवेन्द्र मनि. 'वैदिक साहित्य में ऋषभदेव' (लेख), 'णाणसायर' : 'द ओशन ऑफ इन्डोलॉजी', तीर्थङ्कर ऋषभ अंक, दिसम्बर, 1994, पृष्ठ 71 7. आदिपुराण, 12.76-79 8. नेमिचन्द्र शास्त्री, 'आदिपुराण में प्रतिपादित भारत', वाराणसी, 1968, पृ० 136-37 9. विष्णुपुराण, 1.13.1-39 10. न हि पूर्वविसर्गे वै विषमे पृथिवीतले। प्रविभागः पुराणां वा ग्रामाणां वा पुराऽभवत्।। न सस्यानि न गोरक्ष्यं न कृषिर्न वणिक्पथः। वैन्यात्प्रभृति मैत्रेय सर्वस्यैतस्य सम्भवः।। (वही, 1.13.83-84) 11. वही, 2.1.5-14 12. वही, 2.1.15-18.32 13. ऋषभाद्भरतो जज्ञे ज्येष्ठः पुत्रशतस्य सः। कृत्वा राज्यं स्वधर्मेण तथेष्ट्वा विविधान्मखान्।। अभिषिच्य सुतं वीरं भरतं पृथिवीपतिः। तपसे स महाभागः पुलहस्याश्रमं ययौ।। (वही, 2.1.28-29) 14. पुरुषैर्यज्ञपुरुषो जम्बूद्वीपे सदेज्यते। यज्ञैर्यज्ञमयो विष्णुरन्यद्वीपेषु चान्यथा।। (वही, 2.3.21)

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