Book Title: Anekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 172
________________ अनेकान्त 61-1-2-3-4 तत्रोच्चैः काञ्चनैर्हम्यै मेरुशैलशिरांस्यभिः । पत्रालम्बनलीलेव ध्वजव्याजाद्वितन्यते ॥ प्रे दीप्तमाणिक्यकपिशीर्षपरंपराः । अयत्ना दर्शतां यान्ति चिरं खेचरयोषिताम् ॥ तस्यां गृहांगणभुवि स्वस्तिकन्यस्तमौक्तिकैः । स्वैरं कर्करिककीमां कुरुते वालिकाजनः ॥ अयोध्या के भवनों में लगे रत्नों के ढेरों को देखकर तो विशाल रोहणाचल पर्वत की आशंका होती थी तथा गृहवापिकाएं जल- -क्रीड़ा करती हुई सुन्दरियों के मोतियों के हार टूटने से ताम्रपर्णी नदी के समान शोभा को धारण कर रहीं थीं । अयोध्या नगरी के अमृत के समान जल वाले लाखों कुएं और बावड़ियां नागलोक में स्थित नवीन अमृत के कुम्भ सदृश दिखाई देतीं थीं तत्र दृष्टावाट्टहर्म्येषु रत्नराशीन् समुत्थितान् । तदावरककूटोऽयं तर्क्यते रोहणाचलः ॥ जलकेलिरतस्त्रीणां त्रुटितैर्हारमौक्तिकैः । ताम्रपर्णीश्रियं तत्र दधते गृहदीर्घिकाः । वापीकूपसरोलक्षैः सुधासोदरवारिभिः । नागलोकं नवसुधाकुम्भं परिबभूव सा ॥ वैदिक परम्परा के साक्ष्य हों या जैन परम्परा के, अयोध्या के साथ यक्ष संस्कृति का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। अथर्ववेद के अनुसार यह यक्ष साक्षात् ब्रह्म स्वरूप होकर अयोध्या में प्रतिष्ठित रहा था तो जैन पुराणों में भी यक्षराट् कुबेर इस अयोध्या के निर्माता बताए गए हैं -- 169 तांच निर्माय निर्मायः पूरयामास यक्षराट् । अक्षय्यवस्त्र- नेपथ्य-धन-धान्यैर्निरन्तरम् ॥* 'आदिपुराण' के अनुसार कुबेर ने अयोध्या बनने के बाद निरन्तर रूप से छह महीने तक रत्न की वर्षा की थी 169 संक्रन्दननियुक्तेन धनदेन निपातिता । साभात् स्वसम्पदौत्सुक्यात् प्रस्थितेवाग्रतो विभोः ॥ 70 जैन पुराणों से सम्बन्धित अयोध्यावर्णन वाल्मीकि रामायण से बहुत कुछ प्रभावित जान पड़ता है किन्तु इन वर्णनों में मध्यकालीन भारत के समसामयिक नगरवास्तु के लक्षण भी चरितार्थ हुए हैं।

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