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अनेकान्त 61/1-2-3-4
'साकेत' नाम सार्थक हो रहा था 'आकेतैः गृहै: सहवर्तमाना-साकेता। वह अयोध्या सुकोशल देश में थी इसलिए इसे 'सुकोशला' कहा जाता था। वह नगरी अनेक 'विनीत' अर्थात् विनयशील सभ्यजनों से व्याप्त थी इसलिए वह 'विनीता' के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस प्रकार जिनसेनाचार्य के अनुसार सुकोशला राज्य की राजधानी नगरी अयोध्या राजभवन, वप्र, परिखा आदि से सुशोभित एक ऐसी आदर्श नगरी थी जो ऐसा लगता था मानो आगे कर्मभूमि के समय में निर्मित होने वाले नगरों के लिए आदर्श मानदण्ड ही बन गई हो -
बभौ सकोशला भाविविषयस्यालघीयसः । नाभिलक्ष्मी दधानासौ राजधानी सुविश्रुता ॥ सनृपालमुद्वप्रं दीप्रशालं सखातिकम् ।
तद्वन्निगराम्भे प्रतिच्छन्दायितं पुरम् ॥ 'आदिपुराण' दिगम्बर सम्प्रदाय का ग्रन्थ है जिसके अनुसार आदि तीर्थङ्कर के गर्भावतरण से पूर्व ही इन्द्र की आज्ञा से 'अयोध्या' नगरी का निर्माण कर दिया गया था। किन्तु हेमचन्द्राचार्य द्वारा रचित श्वेताम्बर सम्प्रदाय की रचना 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' नामक पौराणिक महाकाव्य के अनुसार भगवान् ऋषभदेव के राज्याभिषेक के अवसर पर स्वर्गपति इन्द्र ने स्वयं उपस्थित होकर राज्यसिंहासन का निर्माण किया,' देवताओं द्वारा लाए गए तीर्थ जलों से भगवान् की अभिषेक क्रिया का सम्पादन किया और 'विनीता' नाम से अयोध्या नगरी को बसाने की कुबेर को आज्ञा दी। 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' के अनुसार कुबेर ने बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी 'विनीता' नगरी का निर्माण किया और उसका दूसरा नाम 'अयोध्या' रखा
विनीता साध्वमी तेन विनीताख्यां प्रभोः पुरीम् । निर्मातुं श्रीदमादिश्य मघवा त्रिदिवं ययौ ॥ द्वादशयोजनायामां नवयोजनविस्तृताम् ।
अयोध्येत्यपराभिख्यां विनीतां सोऽकरोत्पुरीम् ॥ हेमचन्द्राचार्य (12वीं शताब्दी ई०) ने भी जिनसेनाचार्य की भांति अयोध्या नगरी के समृद्ध तथा उन्नत वास्तुशिल्प को विशेष रूप से रेखाङ्कित किया है। हेमचन्द्राचार्य के अनुसार अयोध्या के उतुङ्ग भवन हीरों, इन्द्रनीलमणियों और वैडूर्यमणियों से बने हुए थे तथा उनमें पताकाएं फहराती थीं। नगरी के किलों पर माणिक्य के कंगूरों की श्रेणियां बनी थीं जो दर्पण का काम करती थीं, घरों के आंगन मोतियों से बने स्वस्तिकों से सुशोभित रहते थे -