Book Title: Anekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 157
________________ 154 अनेकान्त 61/1-2-3-4 दें जो एक ही कुल में उत्पन्न होने के बाद अनिष्ट आचरण कर रहे हैं। थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि ये ऋषभ जैनधर्म के आराध्य ऋषभदेव ही हैं तो भी एक तीर्थङ्कर के लिए यह कैसे सम्भव हो सकता है कि वे अपने सेवक तुल्य इन्द्र के समक्ष याचना के स्वर प्रकट करेंगे? किन्तु वैदिक ऋषि के लिए यह सम्भव है। वैदिक देवशास्त्र के अनुसार इन्द्र सर्वाधिक पराक्रमी देवता हैं। सभी ऋषि-मुनियों की शत्रुओं से रक्षा करने का दायित्व इन्द्रदेव का ही है। इस सूक्त की अन्तिम ऋचा ऋषभ के दम्भ को प्रकट करती है। इसमें कहा गया है कि ऋषभ ने 'योगक्षेम' को प्राप्त करके स्वयं को सर्वश्रेष्ठ बना लिया है इसलिए उसके विरोधी जल में रहने वाले मेंढक की भांति उसके पैरों के नीचे पड़कर चीत्कार करते रहेंगे - योगक्षेमं व आदायाहं भूयासमुत्तम आ वो मूर्धानमक्रमीम्। अधस्पदान्म उद्वदत मण्डूका इवोदकान्मण्डूका उदकादिव।।" प्रो० जैनी के मतानुसार 'ऋषभ वैराज' भले ही जैन श्रमण परम्परा की दृष्टि से अप्रासङ्गिक हों किन्तु वैदिक श्रमण धारा के परिप्रेक्ष्य में वैष्णव धर्म के इतिहास के साथ इनके ऐतिहासिक सूत्र जुड़ते हैं। ऋग्वेद के 'पुरुष सूक्त' के अनुसार 'विराट' या 'विराज' आदिस्रष्टा (भगवान् विष्णु) के पुत्र हैं जिनसे सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि हुई। 'विष्णुपुराण' के अनुसार यही सृष्टिनिर्माण और पालन का कार्य वराहावतार में भगवान् विष्णु करते हैं जिन्होंने स्वयं को ही ब्रह्मा के रूप में प्रकट किया। रजोगुण की प्रधानता से इनका आविर्भाव हुआ था इसलिए इन्हें 'विराज' कहना सार्थक हो जाता है। उधर महाभारत के शान्तिपर्व के अनुसार 'विरजा' प्रजापति विष्णु के ही मानसपुत्र थे तथा संन्यासमार्गी हो गए थे - ततः संचिन्त्य भगवान् देवो नारायणः प्रभुः । तैजसं वै विरजसं सोऽस्रजन्मानसं सुतम् ॥ विरजास्तु महाभागः प्रभुत्वं भुवि नैच्छत ।। न्यासायैवाभवद् बुद्धिः प्रणीता तस्य पाण्डव । ___ 'विष्णुपुराण' के उल्लेखानुसार वाराहकल्प में विष्णु भगवान् ने ही पृथ्वी को जल से निकालकर समतल बनाया, उसमें सात द्वीपों का निर्माण किया और उसके बाद रजोगुण से युक्त होकर ब्रह्मा का रूप धारण किया। ब्रह्मा जी ने प्रजापालन के लिए प्रजापति के रूप में सर्वप्रथम स्वायम्भुव मनु को उत्पन्न किया जिन्होंने अपने साथ ही उत्पन्न शतरूपा नाम की स्त्री को पत्नी के रूप में ग्रहण किया स्वायम्भुव मनु और शतरूपा से प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्रों

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