Book Title: Anekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 144
________________ अनेकान्त 61. 1-2-3-4 141 होगा कि उक्त विभिन्न षट्लेश्याओं या षट् प्रकार की जीवन-परिणतियों में से प्रत्येक का अपना-अपना विशेष वर्ण है। अग्नि व तेजस् लेश्या का वर्ण उदीयमान सूर्य के समान, दमकते हुए सुवर्णवत् होता है। यह तेजस्शक्ति या जीवनपरिणति जैन मान्यतानुसार कठोर तपस्या द्वारा सिद्ध होती है। साधारणतया यह शक्ति लोक उपकार के अर्थ प्रयुक्त होती है, परन्तु कभी कभी साधक इसका प्रयोग रोष के आवेश में विध्वंसक ढंग से भी कर बैठता है। प्राण-विज्ञान की दृष्टि से मानव-देह चार अन्य तत्त्वों के अतिरिक्त तेजस् तत्त्वका भी बना हुआ कहा जाता है। यह मान्यता देह की क्रियात्मक रचना पर अवलम्बित है। वह नंज जो जीवन-रचना की सुरक्षा करता है, अनादि अग्नि व प्राथमिक अनादि जीवन-शक्ति का ही अंश है। त्रिशूल का प्रतीक बौद्ध धर्म और कट्टर ब्राह्मणिक धर्म में जीवन-सम्बन्धी विचारणा के फलस्वरूप 'जीवन-वृक्ष' प्रतीक का एक विशेष स्थान है। कला में, चाहे वह हिन्दू, बौद्ध या जेन कोई भी कला हो, जीवन सम्बन्धी सांकेतिक चिह्नों का विवेचन करते समय हम कदापि उनकं मूल्य और महत्त्व को नहीं भुला सकते। सांची में रत्नजड़ित जीवन-वृक्ष के शिर और पाओं का तथा अमगवती में आग्नेय स्तंभो का जिन प्रतीकों द्वाग प्रदर्शन किया गया है, वे बौद्ध-कला में फैले हुए त्रिशूल के प्रतीक में घनिष्ट सम्बन्ध रखते हैं। इस स्थल पर हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि त्रिशूल का प्रतीक न केवल जैन और बौद्ध कला में ही पाया जाता है, अपितु इसकी परम्परा बहुत पुरानी है। वास्तव में वैश्वानर अग्नि के त्रिभावों की तीन शूलधारी त्रिशूल के प्रतीक में कायापलट हो गई है। पीछे की शैव कला में तो त्रिशूल का शिव के साथ विशेष सम्बन्ध रहा है। मथुग के पुराने सांस्कृतिक केन्द्र से जो कलाकृतियां प्राप्त हुई हैं, उनसे तो यह सम्बन्ध और भी पुराना सिद्ध होता है। मोहनजोदड़ो की प्रागैतिहासिक संस्कृति को देखने से इस सम्बन्ध का प्रारम्भ और भी अधिक प्राचीन हो जाता है। कडफिसिस द्वितीय के शैव सिक्के तथा सिर्कप की शैव मुहर शैवधर्म के साथ त्रिशूल का सम्बन्ध व्यक्त करने के सबसे पुराने उदाहरण हैं। जैन कला में त्रिशूल दिग्देवता का एक पुराना प्रतीक रहा है। धार्मिक तथा लौकिक वास्तुकला के भवन निर्माण के स्थान पर धार्मिक भावना से कूर्मशिला स्थापित करने का विधान मिलता है। यही विधान उत्तरकालीन जैन शास्त्रों में भी पाया जाता है। 'वत्थुसारपयरणं में उक्त परम्परा का अनुसरण करते हुए कूर्मशिला की स्थापनार्थ न केवल उसी प्रकार के मंत्रों

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