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आत्मख्याति टीका में प्रयुक्त 'क्रमनियमित' विशेषण का अभिप्रेतार्थ
अनिल अग्रवाल
1. विषय - परिचय :
समयसार के 'सर्वविशुद्धज्ञान' अधिकार में गाथा 308-311 की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने परिणामों या पर्यायों के लिये 'क्रमनियमित' विशेषण का प्रयोग किया है। आत्मख्याति व्याख्या का वह वाक्य है : जीवो हि तावत्क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पाद्यमानो जीव एव, नाजीवः एवमजीवोऽपि क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पाद्यमानोऽजीव एव न जीवः सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामैः सह तादात्म्यात् कंकणादिपरिणामैः कांचनवत् । इसका शब्दानुवाद है प्रथम तो, जीव है सो क्रमनियमित अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ जीव ही है, अजीव नहीं; इसी प्रकार, अजीव भी क्रमनियमित अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ अजीव ही है, जीव नहीं; क्योंकि सभी द्रव्यों का अपने परिणामों के साथ तादात्म्य होता है, जैसा कि स्वर्ण का कंगन आदि अपनी पर्यायों के साथ ।
प्रश्न यह है कि 'क्रमनियमित परिणाम से यहाँ क्या अभिप्राय है? आत्मख्याति के जो अनुवाद या व्याख्याएं देखने में आई हैं उनमें इसका कोई स्पष्ट अर्थ नहीं मिलता, या फिर उक्त विशेषण को ही नज़रअंदाज़ कर दिया गया है ।' उधर, पिछले कोई साठ वर्षों से कुछ -एक लोग ऐसी मान्यता बनाए हुए हैं कि इसका अर्थ 'क्रमबद्ध पर्याय' है 23 इस अर्थ की द्रव्यानुयोग में प्रतिपादित वस्तुस्वरूप के साथ कोई संगति बैठती नहीं दिखाई देती; और फिर, ऐसा भी प्रतीत होता है कि आचार्यश्री के कृतित्व की समग्रता के आलोक में भली-भाँति जॉचे-परखे बिना ही, उक्त मान्यता को स्वीकार कर लिया गया है । प्रकृत विशेषण के सही भावार्थ तक पहुँचना, इसलिये और भी महत्त्वपूर्ण हो गया है। प्रस्तुत लेख आचार्य अमृतचन्द्र के अभिप्रेतार्थ तक पहुँचने का एक निष्पक्ष एवं विनम्र प्रयास है।