Book Title: Anekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 128
________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 125 4. प्रकृत कथन का अभिप्राय : अब वापिस आते हैं मूल मुद्दे पर : समयसार के गाथाचतुष्क 308-311 पर आत्मख्याति टीका का प्रथम वाक्य (देखिये लेख का पहला पैरा)। यहाँ भी उपरिचर्चित गाथा 103 वाला ही प्रकरण है : जीव के पर-अकर्तृत्व की सम्पुष्टि । इस सन्दर्भ में ही अमृतचन्द्राचार्य ने 'क्रमनियमित' विशेषण का प्रयोग किया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि आचार्यश्री द्वारा प्रयुक्त इस शब्दसमास का अर्थ ऐसा होना चाहिये कि सर्वप्रथम तो वह प्रकृत सन्दर्भ में संगतिपूर्ण और युक्तियुक्त हो; और फिर, सम्पूर्ण समयसार में (नहीं, सम्पूर्ण जिनागम में) प्रतिपादित विषयवस्तु के साथ भी उसका अविरोध सिद्ध हो। __ पहले, प्रकृत सन्दर्भ को ही दृष्टि में रखें तो जीव अथवा अजीव किसी भी द्रव्य के परिणामों या पर्यायों का वह क्रमनियमन ऐसा होना चाहिये कि पर्यायों द्वारा उस नियम के अन्तर्गत रहते हुए, जीवद्रव्य जीवरूप ही वर्तता रहे और अजीवद्रव्य अजीवरूप ही वर्तता रहे; अर्थात् पर्यायों द्वारा उस नियम के अन्तर्गत रहते हुए, द्रव्यान्तरण असम्भव हो - तो क्या होना चाहिये वह अर्थ जो सन्दर्भ-संगति की इस कसौटी पर खरा उतरे? पहली नजर में, इतना समझ में आता है कि परिणामों के लिये प्रयुक्त समासात्मक विशेषण 'क्रमनियमित' का प्रथम घटक - यानी 'क्रम' – किसी कालक्रम, काल की अपेक्षा उत्तरोत्तरता या एक-के-बाद-एकपने को सूचित नहीं करता (हालॉकि अनुवादकों द्वारा प्रायः ऐसा समझ लिया गया है); क्योंकि यदि हम परिणामों के 'क्रमवर्तित्व' अथवा 'क्रमिकता' को दृष्टि में लेते हैं तो उसकी सन्दर्भ से तनिक भी संगत्ति नहीं बैठती। दूसरी ओर, कुछ अन्य लोगों द्वारा प्रस्तावित, क्रमबद्धता' की परिकल्पना (hypothesis) पर यदि विचार करते हैं तो उसकी भी कोई संगति नहीं बनती। कारण सीधा-सा यह है कि पर्यायों की 'क्रमिकता/क्रमवर्तित्व' अथवा कथित 'क्रमबद्धता', दोनों ही अवधारणाओं (concepts) में कोई ऐसी विलक्षणता, कोई ऐसी ख़ासियत नहीं है कि जो प्रकृत सन्दर्भ द्वारा अपेक्षित 'द्रव्यान्तरण की असम्भवता' को सुनिश्चित कर सके - अथवा स्वयं पर्यायों में ही यदि कोई ऐसी विशिष्टता है तो उस तथ्य को समुचित अभिव्यक्ति दे सके। __ आचार्यश्री के अभिप्रेत अर्थ को जब हम उनकी अन्य टीकाकृतियों एवं स्वतन्त्र रचनाओं में ढूँढते हैं (तथा शब्दकोश आदि की भी यथावश्यक सहायता लेते हैं), तब मालूम पड़ता है कि सिद्धान्त तथा अध्यात्म की भॉति ही संस्कृतभाषा के भी प्रकाण्ड विद्वान, श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्य ने 'क्रम' शब्द का

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