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अनेकान्त 61/1-2-3-4
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यहाँ भी आचार्यश्री ने उस विशेषता ('स्वजाति को न छोड़ना' या 'स्वजाति का अविरोध', यानी जात्यन्तरण/द्रव्यान्तरण का विरोध) को परिणाम/पर्याय की एवं उत्पाद-व्यय की मूल अवधारणा में निहित माना है; जिसके हेतु कुछ लोगों को 'क्रमबद्धता' की कल्पना करने का श्रमभार व्यर्थ में ही वहन करना पडा है! आचार्य अमृतचन्द्र के उक्त श्लोक अपने पूर्ववर्ती आचार्य पूज्यपाद के इन वचनों का अनुसरण करते प्रतीत होते हैं : चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वा जातिमजहत उभयनिमित्तवशाद् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनं उत्पादः मृतपिण्डस्य घटपर्यायवत्। तथा पूर्वभावविगमनं व्ययः (त० सू०, 5/30; सर्वार्थसिद्धि टीका)। भट्ट अकलंकदेव एवं आचार्य विद्यानन्दि ने भी, राजवार्तिक तथा श्लोकवार्तिक में इस सूत्र की व्याख्या करते हुए, सर्वार्थसिद्धि-सदृश ही आशय व्यक्त किया है। ___ क्या यह सिर्फ एक संयोग है कि सभी आचार्य समवेत स्वर में पर्यायों में द्रव्यान्तरणविरोध की विशेषता को प्रतिपादित कर रहे हैं? नहीं, यह कोई संयोग नही है, वे तो वस्तु-तथ्य को मात्र अभिव्यक्त कर रहे हैं - जो वस्तुस्वरूप इन सभी नि स्पृह निर्ग्रन्थों को सर्वज्ञकथित आगम की अविच्छिन्न परम्परा द्वारा प्राप्त हुआ है। और, सर्वविदित है कि ग्रन्थ-रचना करने वाले वीतरागी, आर्ष आचार्यों की भिन्नता से 'वाचक शब्दों के चयन में भले ही कुछ भिन्नता हो जाए, किन्तु उन शब्दों के 'वाच्यार्थ' का, यानी वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन कुछ भिन्नता को प्राप्त नही हो जाता – जिनसिद्धान्त किसी व्यक्ति की कल्पना पर नहीं, प्रत्युत ज्ञेयो/वस्तुओ के यथार्थ स्वरूप पर आधारित है।30
6. उपसंहार : अन्त मे, किसी भी प्रकार के संशय या सन्देह के निरसन हेतु, पुनरुक्ति-दोष को भी सहन करते हुए यह दोहराना उचित होगा कि जिनागम के अनुसार (क) द्रव्य का द्रव्यान्तरण, (ख) गुण का गुणान्तरण, तथा (ग) द्रव्यपरिणामों द्वारा द्रव्यस्वभाव का अतिक्रमण, इन तीनों ही घटनाओं की अशक्यता/असम्भवता प्रत्येक द्रव्य के मूल स्वभाव में अनादि से ही अन्तर्निहित है। भेदविवक्षा में चाहे द्रव्य/ द्रव्यस्वभाव, गुण और पर्याय को कथंचित् भिन्न-भिन्न कहा जाता हो, फिर भी वस्तु के मूल स्वभाव को ग्रहण करने वाले अभेदनय की विवक्षा में तीनों एक-रूप-से वस्तु की अचलित सीमा अथवा मर्यादा का उल्लंघन या अतिक्रमण करने में असमर्थ हैं। यहाँ पर, द्रव्यस्वभाव के अन्तर्गत धौव्य को, एवं पर्यायों