Book Title: Anekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 131
________________ 128 अनेकान्त 61/1-2-3-4 करते हैं। हम देखते हैं कि इस गाथा का तथा सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार के गाथाचतुष्क 308-311 का सन्दर्भ एक ही है - परमार्थतः जीव के पर-कर्तृत्व का निषेध । आचार्य अमृतचन्द्र ने दोनों ही स्थलों पर एक-ही आगमसम्मत तर्कणाशैली को अपनाते हुए व्याख्या की है। जहॉ, गाथा 103 की टीका में वे कहते हैं कि द्रव्य और उसके गुण अनादि से वर्तन करते हुए वस्तु की स्वाभाविक, अचलित सीमाओं का उल्लंघन/अतिक्रमण नहीं कर सकते, द्रव्य से द्रव्यान्तररूप और गुण से गुणान्तररूप संक्रमण होना अशक्य है; वहीं गाथा 308-311 की व्याख्या में वे कहते हैं कि वस्तु के परिणाम अनादि से प्रतिक्षण बदलते हुए भी, पर्यायान्तरण घटित होते हुए भी - वे परिणाम वस्तु की स्वाभाविक, अचलित सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकते। ध्यान देने योग्य है कि 'अतिक्रमण', 'संक्रमण' और 'क्रमनियमन', इन सभी शब्दों के अवयवरूप जो 'क्रमण' अथवा 'क्रम' हैं - वे गत्यर्थक हैं," कालापेक्ष उत्तरोत्तरता के सूचक नहीं; अतः प्रकृत में 'क्रमनियमन' का भावानुवाद है : “क्रमनियन्त्रण, अथवा उल्लंघन/अतिक्रमण की अशक्यता'। यदि हम पूर्वाग्रह एवं पक्षपात से रहित दृष्टिकोण से, ऊपर किये गए विश्लेषण को हृदयंगम करें तो निस्सन्देह समझ में आ जाएगा कि जिन लोगों ने भी 'क्रमनियमित परिणाम' का अर्थ 'क्रमबद्ध पर्याय' करने की कोशिश की है उन्होंने 'सन्दर्भ-संगति' एवं 'पूर्वापर-अविरोध' - शास्त्रों का सम्यग् अर्थ करने की पद्धति के इन दो सर्वमान्य एवं अपरिवर्त्य नियमों की अवहेलना की है। 5.2 'तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति' से अविरोध : प्रवचनसार, गाथा 100 की तत्त्वप्रदीपिका टीका का ऊपर उद्धृत किया गया वाक्यांश ('व्यतिरेकाणाम् अन्वय-अनतिक्रमणात्") एवं एसमयसार, गाथा 308-311 की आत्मख्याति टीका का प्रकृत कथन ("पर्यायों का क्रमनियमन'). इन दोनों का एक ही अभिप्राय है। संस्कृत काव्य एवं गद्य, अपनी दोनों ही प्रकार की रचनाओं में भाषा की निष्णात प्रौढ़ता के लिये स्मरणीय, अमृतचन्द्रसूरि की लेखनी से यदि एक ही वस्तु-तथ्य की अभिव्यक्ति के लिये दो भिन्न रचनाओं में भिन्न-भिन्न शब्दावली निःसृत हुई है तो यह दार्शनिक विचारों/भावों, एवं उनके सम्प्रेषण के लिये प्रयुक्त की जाने वाली भाषा - दोनों ही पर उन महान विद्वान के सहज अधिकार का सुपरिणाम है। किसी भी सजग एवं सदाशय पाठक का दायित्व है कि वह आचार्यश्री की उन पंक्तियों में स्व-कल्पित अर्थ को पढ़ने

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