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अनेकान्त 61/ 1-2-3-4
इस अर्थ को दृष्टि में लेकर, 'येषां परिणामाणां (द्रव्यस्वभाव ) क्रमणं नियन्त्रितं नियमितं वा, तानि क्रमनियमितानि परिणामानि प्रकृत समास का इस प्रकार सन्दर्भ - सापेक्ष विग्रह करने पर 24 आचार्यश्री द्वारा अभिप्रेत अर्थ में किसी प्रकार के सन्देह की कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती; जिसके अनुसार, आचार्यश्री के प्रकृत वाक्य का भावानुवाद इस प्रकार होगा : जीव है वह जीवस्वभाव के क्रमण / उल्लंघन के विषय में नियन्त्रित, ऐसे अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ जीव ही है, अजीव नहीं । इसी प्रकार, अजीव / पुद्गल भी अजीव / पुद्गलस्वभाव के क्रमण / उल्लंघन के विषय में नियन्त्रित, ऐसे अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ अजीव / पुद्गल ही है, जीव नहीं; (परिणामों के द्वारा द्रव्यस्वभाव का उल्लंघन, नियमित या नियन्त्रित क्यों है. - ऐसे संभावित प्रश्न के उत्तरस्वरूप, मूलग्रन्थकार का अनुसरण करते
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हुए ही, आचार्यश्री प्रकृत वाक्य का समापन इस प्रकार करते हैं :) क्योंकि सभी द्रव्यों का अपने परिणामों के साथ तादात्म्य होता है, जिस प्रकार कि स्वर्ण का कंगन आदि अपनी पर्यायों के साथ । [ जैसा कि समयसार, गाथा 103 की व्याख्या में आचार्यश्री पहले ही ज़ोर देकर कह आए हैं कि द्रव्य द्वारा वस्तुस्थिति की अचलित सीमा / मर्यादा को तोड़ना अशक्य है, उसी प्रकार, पर्यायों द्वारा भी वस्तुस्थिति की उस अचलित सीमा / मर्यादा को तोड़ना अशक्य है, क्योंकि दोनों के बीच तादात्म्य होने से वे मूल वस्तुपने से एक ही हैं । " ]
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5. प्रस्तुत भावानुवाद का अन्यान्य ग्रन्थों के प्रासंगिक कथनों के साथ अविरोध :
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जैसा कि अनुच्छेद 4 के प्रारम्भ में ज़िक्र कर आए हैं, प्रस्तुत भावानुवाद का अविरोध समयसार के अन्य स्थलों के साथ तथा सम्पूर्ण जिनागम में प्रतिपादित विषयवस्तु के साथ भी परीक्षण किया जाना अभी शेष है :
सिद्ध होता है या नहीं, इस बात का
5.1 स्वयं 'आत्मख्याति' में पूर्वापर - अविरोध : क्रमनियमन का उक्त भावार्थ प्रकृत सन्दर्भ के साथ तो संगत है ही, सम्पूर्ण समयसार में प्रतिपादित विषयवस्तु के साथ भी पूर्वापर - संगति को लिये हुए है; यह एकदम स्पष्ट हो जाता है जब हम कर्ताकर्म अधिकार की उपर्युक्त गाथा 103 पर फिर से गौर