Book Title: Anekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 129
________________ 126 अनेकान्त 61/1-2-3-4 प्रयोग किस अर्थ में किया है। सुप्रसिद्ध कोशकार मोनियर्-विलियम्स् के अनुसार 'क्रम्' धातु का प्रधान अर्थ है" : to step, walk, go, go towards, approach; तथा आप्टे के अनुसार' : चलना, पदार्पण करना, जाना; एवं 'क्रम' संज्ञा का प्रधान अर्थ है : a step, going, proceeding, कदम, पग, गति । अब, ऊपर दिये गए आगम-प्रमाणों के आलोक में, 'क्रमनियमन' का सन्दर्भ-सापेक्ष अर्थ इस प्रकार समझ में आता है : 'क्रमनियमित पर्यायों' से तात्पर्य है, ऐसे नियमित या नियन्त्रित कदम/पग रखने वाली पर्यायें कि द्रव्यस्वभाव की सीमा का उल्लंघन न हो। दूसरे शब्दों में कहें तो : गतिनियन्त्रित परिणाम अर्थात् ऐसी पर्यायें जो गमन करते हुए भी द्रव्य की सीमा का अतिक्रमण न करें, ताकि द्रव्यान्तरण न हो; जिससे कि जीव जीवरूप ही रहे, अजीवरूप न हो। ज्ञातव्य है कि द्रव्यानुयोग में 'गमन' हमेशा से ही परिणमन का प्रतीक रहा है; जैसा कि पंचास्तिकाय में स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द द्रवति गच्छति तान् तान् ... पर्यायान" द्वारा अभिव्यक्त करते हैं; अथवा जैसे 'समय' शब्द की व्युत्पत्तिपरक परिभाषा में कहा गया है : सम्यक त्रिकालावच्छिन्नतया अयन्ति गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति स्वगुणपर्यायानिति समयाः पदार्थाः । और, द्रव्य व पर्यायों की इस कथंचित् भेदविवक्षा वाली, प्रतीकात्मक भाषा में चाहे द्रव्य को "गमन करते हुए उन-उन पर्यायों तक पहुँचने वाला, उनको प्राप्त करने वाला' कहा जाए; या चाहे पर्यायों को "द्रव्यसामान्यरूपी प्रांगण की सीमा के भीतर गमन करते हुए, निजद्रव्य को प्राप्त करने वालीं" कहा जाए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता - दोनों रूपक एक ही वस्तुस्वरूप को दर्शाते हैं, जैसा कि आचार्य पूज्यपाद ने भी कहा है : जो यथायोग्य अपनी-अपनी पर्यायों के द्वारा प्राप्त किये जाते हैं, अथवा पर्यायों को प्राप्त करते हैं वे द्रव्य कहलाते हैं (सर्वार्थसिद्धि, अ० 5, सू० 2); और जिसका विशद विवेचन भट्ट अकलंकदेव ने राजवार्तिक में किया है। __ अथवा, उक्त कोशों के अनुसार क्रम्' धातु का एक अन्य, प्रसिद्ध अर्थ है : to go across, go over; पार करना, पार जाना, छलांग मारना (गौरतलब है कि 'क्रम्' धातु के इस द्वितीय अर्थ में, 'क्रम्' का वही अर्थ है जिसके लिये 'अतिक्रम्' शब्द का प्रयोग भी किया जाता है)। इस अर्थ में प्रयुक्त 'क्रम्' धातु के साथ 'ल्युट्' प्रत्यय से, 'क्रमण' शब्द बनता है; नपुंसकलिंग में 'क्रमणम्' हुआ, जिसका अर्थ है : उल्लंघन, transgressing या अतिक्रमणरूप क्रिया ।। जैसा कि मोनियर्-विलियम्स् द्वारा इंगित किया गया है, 'क्रमणम्' शब्द का इस अर्थ में व्यवहार (usage) दो हज़ार वर्ष से भी ज्यादा पुराना है। अतः स्पष्ट है कि आचार्य अमृतचन्द्र के समय से भी बहुत पहले से ही प्रचलित है।

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