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अनेकान्त 61/1-2-3-4
टीका, दोनों में व्यक्त किया गया है : स्वभावे नित्यमवतिष्ठमानत्वात्सदिति द्रव्यम् अर्थात् स्वभाव में नित्य अवस्थित होने से द्रव्य ‘सत' है, अस्तिस्वरूप है।
यहाँ कोई प्रश्न करता है : परस्पर में अत्यन्त प्रगाढ़ संश्लेष-सम्बन्ध को प्राप्त हुए जीव एवं पुद्गल द्रव्यों के प्रकरण में, पुद्गल-पुद्गल बन्ध के फलस्वरूप द्वि-अणुक आदि एवं जीव-पुद्गल बन्ध के फलस्वरूप मनुष्य, तिर्यंच आदि विभावपर्यायों के उत्पन्न होते हुए भी, क्या द्रव्यान्तरण घटित नहीं होता? ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार में ही आचार्य अमृतचन्द्र इसका उत्तर देते हैं कि नहीं, व्यणुकादि तथा मनुष्यादि वे पर्यायें तो कादाचित्क (कभी, किसी समय होने वाली) अर्थात् अनित्य हैं, अतः उत्पन्न हुआ करती हैं; किन्तु द्रव्य तो अनादि-अनिधन अथवा त्रिकालस्थायी होने से उत्पन्न नहीं होता, तो द्रव्यान्तरण कैसे हो सकता है? और फिर, पर्यायान्तरण घटित होते हुए भी, पर्यायों का उत्पाद-व्यय होते हुए भी; वे पर्यायें द्रव्यस्वभाव का कभी उल्लंघन नहीं करतीं : यौ च कुम्भपिण्डयोः सर्गसंहारौ सैव मृत्तिकायाः स्थितिः, व्यतिरेकाणामन्वयानतिक्रमणात् अर्थात् जो कुम्भ का सृजन/ उत्पाद है और मृत्पिण्ड का संहार/व्यय है, वही मृत्तिका की स्थिति/ध्रौव्य है, क्योंकि व्यतिरेक अर्थात् भेदरूप पर्यायें कभी अन्वय' अथवा द्रव्यसामान्य/ द्रव्यस्वभाव का अतिक्रमण नहीं करती (प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार, गाथा 100, तत्त्वप्रदीपिका टीका)।
ऊपर दिये गए आगम-प्रमाणों से स्पष्ट है कि : (क) द्रव्य का द्रव्यान्तरण, (ख) गुण का गुणान्तरण, तथा
(ग) द्रव्यपरिणामों द्वारा द्रव्यस्वभाव का अतिक्रमण, इन तीनों ही घटनाओं की अशक्यता/असम्भवता प्रत्येक द्रव्य के मूल स्वभाव में अनादि से ही निहित है। क्योंकि वस्तु के स्वरूप को समझने-समझाने के लिये की जाने वाली भेदविवक्षा में, द्रव्य, गुण और पर्याय को भले ही भिन्न-भिन्न कहा जाए, किन्तु वस्तु के मूल स्वभाव को ग्रहण करने वाले अभेदनय की विवक्षा में तीनों एक-रूप-से वस्तु की अचलित सीमा अथवा मर्यादा का उल्लंघन या अतिक्रमण करने में असमर्थ हैं। प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार में गाथा 95 द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द स्वयं यही अभिप्राय व्यक्त करते हैं : स्वभाव को छोड़े बिना, जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यसंयुक्त है तथा गुणयुक्त और पर्यायसहित है, उसे द्रव्य कहते हैं।