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अनेकान्त 61/1-2-3-4
123 आचार्य कुन्दकुन्द परमार्थतः जीव के पर-कर्तृत्व का निषेध करने के लिये कहते हैं :
जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दव्वे।
सो अण्णमसंकंतो कह तं परिणामए दव्वं ।। 103 || अर्थ . जो वस्तु जिस स्वकीय द्रव्य में और जिस स्वकीय गुण में वर्तती है, वह अन्य द्रव्य में और अन्य गुण में संक्रमण को प्राप्त नहीं होती अर्थात् अन्यरूप नहीं पलटती। वह वस्तु जब अन्य में संक्रमण नहीं करती तो अन्य द्रव्य को उपादान-रूप-से कैसे परिणमा सकती है? (और, इसलिये, अन्य द्रव्य की कर्ता कैसे हो सकती है; क्योंकि “यः परिणमति स कर्ता, यः परिणामो भवेत् तु तत्कर्मः,'' इस परिभाषा के अनुसार, केवल उपादान ही कर्ता हो सकता है?) __ इस गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं : "इस लोक में जो कोई, जितनी वस्तुएं हैं वे सब अपने चेतनस्वरूप अथवा अचेतनस्वरूप द्रव्य में और गुणों में सहज स्वभाव से अनादि से ही वर्त रही हैं; वस्तुस्थिति की इस अचलित सीमा को तोड़ना, उसका उल्लंघन करना अशक्य/ असम्भव है। इसलिये जो वस्तु जिस द्रव्यरूप और जिन गुणोंरूप अनादि से है, वह उसी द्रव्यरूप और उन्हीं गुणों रूप सदा रहती है, द्रव्य से द्रव्यान्तररूप और गुण से गुणान्तररूप उसका संक्रमण नहीं हो सकता।" (और जब अन्य द्रव्य या अन्य द्रव्य के गुणों में उसका संक्रमण नही हो सकता, तब वह उस अन्य वस्तु को कैसे परिणमित करा सकती है? अर्थात् नहीं करा सकती। इसीलिये परभाव किसी के द्वारा नहीं किया जा सकता।) ____ ऊपर, तिरछे टाइप (italics) मे दर्शाए गए आचार्य कुन्दकुन्द तथा अमृतचन्द्राचार्य के वचनों पर गौर करें तो स्पष्ट समझ में आता है कि द्रव्य से द्रव्यान्तर और गुण से गुणान्तर होने की अशक्यता-असम्भवता वस्तुतः प्रत्येक चेतन या अचेतन द्रव्य के मूल स्वभाव में ही निहित है। दरअसल, प्रत्येक द्रव्य में पाए जाने वाले 'अस्तित्व' स्वभाव की ही यह विशेषता है कि जो द्रव्य जिस स्वभाव को प्राप्त है, वह उससे कभी भी च्युत नहीं होता, आलापपद्धति के रचनाकार आचार्य देवसेन के शब्दों में : स्वभावलामात् अच्युतत्वादस्तिस्वभावः । यही अभिप्राय प्रवचनसार के 'ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन' अधिकार के अन्तर्गत, मूल गाथा 99 एवं उसकी तत्त्वप्रदीपिका