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अनेकान्त 61/1-2-3-4
2. परिणामों या पर्यायों की क्रमिकता : तत्त्वार्थसूत्रकार ने गुणपर्ययवद् द्रव्यम् (5/38) सूत्र द्वारा "गुण और पर्याय वाला द्रव्य होता है," यह प्रतिपादित किया है। गुण और पर्याय में अन्तर बतलाने के लिये आगम में अनेकानेक स्थलों पर गुणों को सहप्रवृत्त/सहवर्ती/सहभावी और पर्यायों को क्रमप्रवृत्त/क्रमवर्ती/ क्रमभावी कहा गया है। तात्पर्य यह है कि किसी भी द्रव्य के अनेक गुण तो उस द्रव्य में युगपत् अर्थात् एक-साथ रहते हैं, जबकि अनेकानेक पर्यायें काल की अपेक्षा क्रमशः यानी एक-के-बाद-एक होती हैं (चूंकि विवक्षित क्षण में द्रव्य की जो अवस्था है वही तो उसकी तत्क्षणवर्ती पर्याय है, इसलिये द्रव्य की किसी भी क्षण एक ही पर्याय होनी सम्भव है)। यही आशय प्रवचनसार, गाथा 10 की तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने व्यक्त किया है : वस्तु पुनरूवंतासामान्यलक्षणे द्रव्ये सहभाविविशेषलक्षणेषु गुणेषु क्रममाविविशेषलक्षणेषु पर्यायेषु व्यवस्थितमुत्पादव्ययधौव्यमयास्तित्वेन निवर्तितनिर्वृत्तिमच्च अर्थात् वस्तु है वह ऊर्ध्वतासामान्यस्वरूप द्रव्यस्वभाव में, सहभावी विशेषस्वरूप गुणों में तथा क्रमभावी विशेषस्वरूप पर्यायों में रहने वाली है और उत्पादव्ययध्रौव्यमय अस्तित्व से बनी हुई है।
इस प्रकार, 'पर्याय' और 'क्रम', इन दोनों के बीच एक साहचर्य-सा चला आया है; इस सन्दर्भ में जिस भाव को 'क्रम' शब्द सूचित करता है, वह है : कालापेक्ष उत्तरोत्तरता (temporal succession)। आगे चलकर हम देखेंगे कि (सन्दर्भ-विशेष के चलते) उक्त दोनों शब्दों के बीच इस 'साहचर्य' के अभ्यस्त-से हो जाने के कारण ही हम भूल कर बैठे हैं;
जब आचार्यश्री ने एक अन्य सन्दर्भ में पर्यायों के लिये "क्रमनियमित विशेषण का प्रयोग किया, तो (उस सन्दर्भ की भिन्नता या विशिष्टता पर गौर न करते हुए) अपने अभ्यास/ आदत के वश ही हमने उसका अर्थ लगा लिया; और अपनी इस असावधानी के फलस्वरूप, उन महान विद्वान के शब्दों का भावार्थ समझने में हम असमर्थ रहे। 3. आचार्यश्री के प्रकृत वाक्य का सन्दर्भ : सबसे पहले हमें उस सन्दर्भ को भली-भॉति समझना होगा जिसके अन्तर्गत अमृतचन्द्राचार्य ने उक्त वाक्य लिखा है। समयसार के ‘कर्ताकर्म' अधिकार में,