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अनेकान्त 61/1-2-3-4
122. तत्त्वप्रदीपिका टीका, परिशिष्ट, क्रम सं० 31 पर अकालनयविषयक निरूपण । 123. (क) अष्टसहस्री, कारिका 88; सन्दर्भ 9. पृ० 257.
(ख) अष्टसहस्री, तृतीय भाग, कारिका 88, सन्दर्भ 90, पृ० 441. 124. आप्तमीमांसा, कारिका 108. 125. (क) श्रम् (धातु) = to make effort; to exert one's self, especially in
performing acts of austerity (Ref. 5, p. 1096) = चेष्टा करना, तपश्चर्या करना, तपस्या के द्वारा इन्द्रियनिग्रह
करना (सन्दर्भ 6, पृ० 1035) (ख) श्रम (संज्ञा) = exertion; hard work of any kind, as in performing acts of
bodily mortification, religious exercises and austerity (Ref.5, p. 1096) - चेष्टा, प्रयत्न, तपस्या, साधना, इन्द्रियनिग्रह
(सन्दर्भ 6, पृ० 1035) (ग) "श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः, तस्य भावं श्रामण्यं श्रमणशब्दस्य पुंसि प्रवृत्तिनिमित्तं
तपःक्रिया श्रामण्यम्।" (भगवती आराधना, गाथा 71, विजयोदया टीका) (ध) "पंचरामिदो तिगुत्तो पंचेदियसवुडो जिदकसाओ।
दसणणाणरामग्गो सभणो सो संजदो भणिदो।। 240।। समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्रवो पससणिदसमो।
समलोट्टकंचणो पुण जीविदमरणे समां समणो।। 241 ।। (प्रवचनसार) अर्थ . जो पांच समितियों से सम्पन्न, तीन गुप्तियों से सरक्षित, पांच इन्द्रियों का संवर करने वाला, कषायो को जीतने वाला, दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण है, जिसे शत्रु और मित्रवर्ग समान हैं, सुख और दुःख समान हैं, प्रशंसा और निन्दा के प्रति जिसको समता है, जिसे लोष्ठ यानी मिट्टी का ढेला और स्वर्ण समान हैं, तथा जीवन और मरण के प्रति जिसको समता है, ऐसे संयत को श्रमण कहा गया है।
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(प्रस्तुति : अनिल अग्रवाल)