________________
अनेकान्त 61/1-2-3-4
119
114. जो जाणदि अरहंत दव्यत्तगुणत्तपज्जयत्तेहि।
सो जाणदि अप्पाण मोहो खलु जादि तस्स लय । ! (प्रवचनसार, गाथा 80) 115. अनित्यादिक एकागी भावनाओ को भाना भी तभी कार्यकारी होता है जब साधक को
अनेकान्तात्मक वस्तुस्वरूप का सम्यकीत्या ज्ञान हो, क्योकि अनित्य भावना का प्रयोजन असारभूत सयोगी पदार्थो से जीव को हटाकर उसे सदा-नित्य अपने आत्मस्वरूप मे लगाना है, अशरणानुप्रेक्षा का उद्देश्य भी जीव को मिथ्याशरणरूप बाह्य आलम्बनो से विमुख करके पहले पचपरमेष्ठीरूप व्यवहार-शरण मे, और अन्तत, आत्मस्वभावरूप निश्चय-शरण मे लाना है, इत्यादि। ज्ञातव्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने 'बारस अणुबेक्खा' मे अनित्य अशरण, अन्यत्व आदि अनुप्रेक्षाओ के निरूपण के अन्तर्गत, नित्य, शरण, एकत्व आदि के प्रतिपादन हेतु भी कम-से-कम एक दोहा अवश्य रचा है।
इसी प्रकार उपचरित नियति का आश्रय लेकर, निचली भूमिका वाले सम्यग्दृष्टि साधक का उद्देश्य पहले तो सयोगी स्थितियो मे जुड रहे अपने परिणामो से स्वय को उबारना है। तदनन्तर, नियतस्वरूप अपने ज्ञायकस्वभाव के साथ पुन पुन एकानुभवन के द्वारा, समुचित आत्मबल बढा लेने पर प्रतिज्ञापूर्वक महाव्रतादि को धारण करके, तपश्चरण-ध्यानादिरूप जो अनियतस्वरूप पुरुषार्थ है उसकी परम प्रकर्षता द्वारा, कर्मो की उनके उदयकाल से पहले बलात् उदीरणा करते हुए अविपाकनिर्जरा करके, मुक्ति को प्राप्त होकर परमनियतस्वरूप अपनी शुद्धस्वभावपर्याय मे सुस्थित होना है। अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्व के निरन्तर अभ्यास से ही इस तर्कसंगत परिणति तक पहुंचा जा सकता है
अन्यथा नही। 116. सन्दर्भ 47 पृ० 95-96. 117. (क) तत्त्वाभ्यासरूपी पुरुषार्थ की प्रगाढता के द्वारा पैदा किये गए अबुद्धयात्मक
चतनपरिणामरूप ज्ञानसस्कार औपशमिक सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के समय भी कार्य कर रहे होते है। दूसरे शब्दो मे, उस काल मे बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ तो कार्यकारी नहीं है, किन्तु तत्त्वाभ्यासरूपी बुद्धयात्मक पुरुषार्थ की सन्तानस्वरूप जो अबुद्ध्यात्मक ज्ञानसस्कार है (दखिय 'ज्ञानजो ज्ञानहेतुश्च सस्कार, सन्दर्भ 27), वे उस समय भी कार्यरत है। इस दृष्टि से देखने पर, स्पष्ट है मोक्षमार्ग के बीजरूप जा राम्यग्दर्शन है, उसका वपन करने मे भी पुरुषार्थ की ही प्रधानता है। (ख) देखिये सन्दर्भ 114 मे उद्धृत प्रवचनसार की गाथा पर श्रीजयसेनीय वृत्ति का यह वाक्य तदनन्तरम-अविकल्पस्वरूपे प्राप्ते अभेदनयेन-आत्मा-एव-इति भावयतो
दर्शनमोहान्धकार प्रलीयते।' 118. पूर्वकालवी परिणामसहित द्रव्य कारणरूप होता है और उत्तरकालवी परिणामसहित
द्रव्य कार्यरूप होता है, यह ऊपर सन्दर्भ 106(ख) मे देख आए है। इस दृष्टि मे "कार्य और कारण मे कोई भेद नही है, वे दोनो एकाकार ही है, जैसे, पर्व व अगुली, यही द्रव्यार्थिक नय है" (राजवार्तिक, 1/33/1)। इसके विपरीत, ऋजुसूत्रनय का विषय मात्र वर्तमानकालवर्ती होने से. कारणकार्यभाव इस नय के विषयक्षेत्र से बाहर है। अत उत्पाद और व्यय, दोनो ही इस नय की अपेक्षा निर्हेतुक होते है। (जयधवला, सन्दर्भ 19(क), पृ०
206-09] 119. देखिये, सन्दर्भ 39. 120. सर्वार्थसिद्धि, अ० 8, सू० 23. 121. ज्ञानार्णव, सर्ग 35, छन्द 27.