________________
112
अनेकान्त 61/1-2-3-4
यद्यपि अष्टशती में उक्त श्लोक से पहले, स्पष्ट-रूप-से 'तदुक्तं' लिखा मिलता है (देखिये सन्दर्भ 10, पृ० 41); तो भी, कुछ लोग आज भी इसे अष्टसहस्रीकारकृत या अकलंकदेवकृत बतलाते हैं, और इसका सन्दर्भ-निरपेक्ष, मनमाना अर्थ करने में लगे हैं। (उदाहरणार्थ देखिये : क्रमबद्धपर्याय-निर्देशिका, अभयकुमार जैन, पं० टोडरमल स्मारक
ट्रस्ट, जयपुर, तृ० सं०, 2006, पृ० 125)] 33. देखिये सन्दर्भ 11, पृ० 257. 34. संदर्भ 5, पृ० 749. 35. संदर्भ 6, पृ० 733. 36. स्वयम्भूस्तोत्र, तत्त्वप्रदीपिका व्याख्या, प्रो० उदयचन्द्र जैन (श्री गणेश वर्णी दि० जैन
संस्थान, 1993). पृ० 65-68. 37. धवलाटीका-समन्वित षट्खण्डागम, 1.9-8, 3, पु० 6, पृ० 203-205 । 38. पंचास्तिकाय, गाथा 151 (कम्मस्साभावेण ...) की तात्पर्यवृत्ति। 39. (क) "बुद्धिमान् भव्य जीव, आगमभाषा के अनुसार 'क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और
करण' नामक पंचलब्धियों से, और अध्यात्मभाषा के अनुसार निजशुद्धात्माभिमुख–परिणाम' नामक विशेष निर्मलभावनारूप खड्ग से पौरुष करके (मिथ्यात्वरूपी) कर्मशत्रु को हनता है।" (द्रव्यसंग्रह, गाथा 37, श्री ब्रह्मदेवकृत वृत्ति) (ख) “इन्द्रभूति गौतम जब भगवान् महावीर के समवसरण में गए, तब मानस्तम्भ के देखने मात्र से ही, आगमभाषा के अनुसार दर्शनमोहनीय के उपशम/क्षय/क्षयोपशम से, और अध्यात्मभाषा के अनुसार निज शुद्धात्मा के सम्मुख परिणाम से एवं कालादि लब्धि-विशेष
से उनका मिथ्यात्व नष्ट हो गया।" (वही, गाथा 41, संस्कृतवृत्ति) 40. संदर्भ 6, पृ० 528.
41. संदर्भ 5, पृ० 552. 42. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 2, पृ० 613-20, देखिये 'नियति' शीर्षक के नीचे दिये गए
विभिन्न उपशीर्षक, और उनके अन्तर्गत संकलित शास्त्र-उद्धरण। 43. आधुनिक नियतिवाद के प्रचारक 'वस्तुविज्ञानसार' नामक पुस्तक में कहते हैं : “यदि ऐसा
माना जाए कि जब मिट्टी से घडा नहीं बना था, तब उस समय भी मिट्टी में घडा बनने की योग्यता थी, परन्तु निमित्त नहीं मिला, इसलिये घडा नहीं बना, तो यह मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि जब मिट्टी में घडारूप अवस्था नहीं हुई, तब उसमें पिण्डरूप अवस्था है,
और उस समय वह अवस्था होने की ही उसकी योग्यता है। जिस समय मिट्टी की पर्याय में पिण्डरूप अवस्था की योग्यता होती है, उसी समय उसमें घडारूप अवस्था की योग्यता नहीं होती क्योंकि एक ही पर्याय में एक साथ दो प्रकार की योग्यता कदापि नहीं हो सकती। यह सिद्धान्त अत्यन्त महत्त्व का है, यह प्रत्येक स्थान पर लागू करना चाहिये।" (वस्तुविज्ञानसार, हिन्दी अनुवाद : पं० परमेष्ठीदास जैन न्यायतीर्थ, श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़, काठियावाड, 19483; पृ० 40)
यहाँ यह भूल की जा रही है कि जिस पर्याय-योग्यता का यहाँ सन्दर्भ है, वह पर्याय-योग्यता किसी "अमुक पर्याय में" कदापि नहीं कही जाती, प्रत्युत विवक्षित स्थूल/व्यंजनपर्याययुक्त द्रव्य में कही जाती है। उक्त वक्ता द्वारा दिये गए उदाहरण में मृत्पिण्ड तथा घडा, दोनों ही मिट्टीरूप द्रव्य की स्थूल या व्यंजनपर्यायें हैं। जैसा कि लेख में आगे चलकर चर्चा करेंगे, मृत्पिण्ड अवस्था में जो मृद्रव्य (मिट्टीरूप द्रव्य) है,