________________
अनेकान्त 61/1-2-3-4
113
उसमे नाना योग्यताए हैं। अत “एक ही पर्याय मे एक साथ दो प्रकार की योग्यता कदापि नही हो सकती," इस वाक्य मे मूलभूत गलती यह है कि प्रश्न "अमुक पर्याय मे पर्याय-योग्यता" का बिल्कुल नहीं है बल्कि "अमुक पर्याययुक्त द्रव्य मे पर्याय-योग्यता" का है। और जिनागम के अनुसार किसी भी पर्याययुक्त द्रव्य मे असदिग्ध रूप से
अनेकानेक पर्याय-योग्यताए हुआ करती हैं। 44. 'जब आत्मा की जो अवस्था होती है तब उस अवस्था के लिये अनुकूल निमित्तरूप परवस्तु
स्वय उपस्थित होती ही है। (वही पृ० 6 पैरा 2) 45. जो क्रमबद्ध पर्याय उस समय प्रगट होनी थी वही पर्याय उस समय प्रगट हुई सो
नियति है। (वही पृ० 30 बिन्दु 3 के अन्तर्गत) 46. सन्दर्भ 31 पृ० 455-56, खडी-बोली रूपान्तर। 47. द्रव्ययोग्यता और पर्याययोग्यता की विस्तृत चर्चा के लिये देखिये जैनदर्शन, डॉ०
महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य (श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, द्वि० स० 1966),
अध्याय 4. 48. असख्यातासख्यात लोकप्रमाण वैभाविक चेतन परिणामो मे से. असख्यातो लोकप्रमाण
परिणाम तो ऐसे होगे जो देव नारक. या तिर्यच व्यजनपर्यायो मे तो होने सम्भव हो, किन्तु मनुष्यपर्याय मे नही। मनुष्यजीवो मे भी, असख्यातो लोकप्रमाण परिणाम ऐसे होगे जो भोगभूमि कुभोगभूमि विद्याधरक्षेत्रो म्लेच्छखण्डो के निवासियो मे तो होने सम्भव हो, किन्तु आर्यखण्ड के निवासियो मे नही। पुनश्च, वर्तमान पृथ्वी/आर्यखण्ड के निवासियो मे, एक आर न तो ऐसे रौद्र परिणामो की योग्यता है जो सातवे-छठे आदि नरको के योग्य आयु का बन्ध कर सके, और दूसरी ओर न ही ऐसे परिणाम होने सम्भव हैं जो सातवे से ऊपर
के गुणस्थानो की भूमिका मे ही होने शक्य हो। 49. कालादिलब्धिसयुक्ता कालद्रव्यक्षेत्रभवभावादिसामग्रीप्राप्ता ।
(स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा 219 भट्टारक शुभचन्द्रकृत सस्कृत टीका) 50. प्रमाण-परीक्षा, अनुच्छेद 84 (सम्पा० डा० दरबारीलाल कोठिया वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट
प्रकाशन 1977 मूल सस्कृतपाठ पृ० 36)। ये उद्धरण भी द्रष्टव्य है (क) आत्मविशुद्धिविशषो ज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमभेद स्वार्थप्रमितौ शक्तियोग्यतेति च स्याद्वादन्यायवदिभिरभिधीयते। (वही पृ० 3-4) (ख) स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया अर्थात् अपने ज्ञान के रोकने वाले आवरणो के क्षयोपशमरूप योग्यता के द्वारा । (देखिये माणिक्यनन्द्याचार्यकृत परीक्षामुख, अनेकान्त ज्ञानमन्दिर शोध सस्थान, बीना, द्वि० स०, 2005, पृ० 32-34, क्षुल्लक
विवेकानन्दसागर की व्याख्या एव तदन्तर्गत प्रश्नोत्तर पठनीय है।) 51. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (गाधी नाथारग जैनग्रन्थमाला बम्बई, 1918) पृ० 196. 52. 'ज्ञान की अमुक पर्याय को प्रकट न होने देना विवक्षित ज्ञानावरणकर्म के सर्वघाती स्पर्धको
के उदय का काम है, किन्तु जिस जीव के विवक्षित ज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है उसके उस ज्ञानावरण के सर्वघाती स्पर्धको का उदय न होने से विवक्षित ज्ञान के प्रकाश मे आने की योग्यता होती है, और इसी योग्यता का नाम लब्धि है। ऐसी योग्यता एक साथ सभी क्षायोपशमिक ज्ञानो की हो सकती है, किन्तु उपयोग मे एक काल में एक ही ज्ञान आता है।" (देखिये सर्वार्थसिद्धि, 2/18, टीकार्थ के अनन्तर दिया गया विशेषार्थ,