Book Title: Anekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

Previous | Next

Page 104
________________ अनेकान्त 61/ 1-2-3-4 110 अर्थ : (अज्ञानीजन भले ही कहते फिरते हों कि हरि, हर आदि 'देवता' धन आदि देते हैं अथवा उपकार करते हैं, किन्तु) सम्यग्दृष्टि चिन्तवन करता है कि न तो कोई जीव को लक्ष्मी देता है और न ही कोई उसका उपकार करता है; वास्तव में जीव के स्वयं के शुभाशुभकर्म ही उसका उपकार अथवा अपकार करते हैं; यदि भक्ति से पूजा करने से व्यन्तर देवादिक भी लक्ष्मी दे सकते होते तो फिर धर्म (अर्थात् शुभभाव) करने की क्या आवश्यकता? सम्यग्दृष्टि का चिन्तवन पूर्ववत् जारी है कि ये जीवन-मरण, लाभ-हानि आदि लौकिक परिस्थितियाँ मेरे करने से नहीं बदलेंगी, अतः मुझे इनको बदलने की इच्छा करना व्यर्थ है; क्योंकि जिस जीव के, जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से, जो जन्म अथवा मरण ( एवं उपलक्षण से लाभ-हानि, सम्पत्ति - विपत्ति, सुख-दुःख, इष्ट-अनिष्ट संयोग-वियोग आदि) जिनदेव ने नियत अर्थात् निश्चित रूप से जाना है; उस जीव के, उसी देश में, उसी काल में, उसी विधान से वह अवश्य होता है, उसे टाल सकने में इन्द्र अथवा जिनेन्द्र कौन समर्थ है? 101 निचली भूमिका में स्थित साधक ( अविरत सम्यग्दृष्टि) को श्रद्धान है कि "पर कभी मेरा बुरा-भला नहीं कर सकता, सम्पत्ति - विपत्ति नही दे सकता" क्योकि निमित्त को कर्ता मानने के मिथ्याभाव का वह निरसन कर चुका है, तथापि आत्मबल की कमी से, अब भी परपदार्थो में इष्ट-अनिष्टता की कल्पना कर बैठता है । उपर्युक्त गाथाचतुष्क की पहली दो गाथाओं द्वारा दर्शाया गया है कि ऐसी स्थिति आने पर, अशुभ विकल्पों को तोडने के लिये वह सर्वज्ञकथित समीचीन कर्मसिद्धान्त पर आधारित भावना भाता है कि : अपने उपार्जित कर्मफल को जीव पाते हैं सभी, इसके सिवा कोई किसी को कुछ नहीं देता कभी । ऐसा समझना चाहिये एकाग्र मन होकर सदा, दाता अपर है भोग का इस बुद्धि को खोकर सदा।।"" तदनन्तर, अगली दो गाथाओं द्वारा दर्शाया गया है कि अविरत सम्यग्दृष्टि जन्म-जरा-मरण, हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि स्थितियों के आने पर तीव्ररागद्वेषात्मक विकल्पों से बचने के लिये, किस तरह उपर्युक्त ज्ञानापेक्ष नय के विषयभूत, कथंचित् निश्चितपने के कथन को प्रयोजनवश मुख्य करके चिन्तवन करता है, भावना भाता है। उसकी यह भावना यद्यपि शुभभावरूप ही है, इसलिये परमार्थतः बन्ध का ही कारण है; तथापि तीव्र अशुभबन्ध के कारणभूत तीव्ररागद्वेषरूप विकल्पों की अपेक्षा यह "कम घाटे वाला विकल्प" है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201