Book Title: Anekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 11
________________ अनेकान्त/६ आगमों में पुग्गल १. प्रवचनसार (ए.एन. उपाध्याय संपादित) 'फासेहिं पुग्गलाणं' - २/८५ "पुग्गल जीवप्पगो भणिदो'' २/८५ "तेसु पदेसु पुग्गला काया" २/८६ "पुग्गल कार्येहि सव्वदो लोगो' २/७६ २. भगवती आराधना "ते चैव पुग्गल जादा' गाथा ४/१० ३. पंचास्तिकाय (पं पन्नालाल सा आ. संपादित) "जीवापुग्गल काया" गाथा २२ "पुग्गल दव्वेण विणा'' गाथा २६ ४ समयसार (संपादन, वही) "पुग्गल कम्मं करोदि'' गाथा ३३० "तम्हापुग्गला कम्म मिच्छा'' गाथा ३३१ ५. नियमसार (सपादन, वही) "ठिदिजीव पुग्गलाणं च'' गाथा ३० " पुग्गलं दव्वं मुत्तं' गाथा ३७ ६ वारसाणुवेक्खा (संपादन, वही) "पुग्गल परियट्ट संसारे'' गाथा२५ ७. अभिधान राजेन्द्र कोश · पुग्गल - “पूरणगलन धर्माणः पुद्गला'' पृष्ठ ९६८ बन्नगंधरसाफासा पुग्गलाणं तुलक्खणं- पृष्ठ १०९७ पुग्गला अणता पणत्ता - पृष्ठ १०९७ गोपेन्द्र : गोविन्द “प्राकृत विद्या - दिसम्बर ९४ के पेज २० पर एक लेख मे शौरसैनी की पुष्टि मे लिखा है- 'आदि शकराचार्य ने भी अपने संस्कृत ग्रन्थ में “गोपेन्द्र'' इस सस्कृत पद की जगह “गोविन्द'' इस शौरसेनी प्राकृत के पद का प्रयोग किया ।' सोचने की बात है कि जब उक्त पद मे सयुक्ताक्षर से पूर्व के 'ए' को शौरसनी में ड होकर “गोविट'' रूप बन सकता है तव 'पोग्गल'' का पुग्गल रूप होना क्यो मिरदर्द बना हुआ है ? हेमचन्द्राचार्य ती 'हरव सयोगे' सूत्र मे स्पष्ट कह रहे है कि सयोगी वर्ण मै पूर्व के आ, ई, ऊ, ए. आं, को क्रमश अ. इ, उ, इ, उ हो जाते है और आन मंयोग' 'मूत्र स उ को ओ भी हो जाता है । इस प्रकार पश्चाद्वर्ती व्याकरण से भी पुग्गल और पोग्गल दोनो रूप सिद्ध किए गए है । प्राकृत के व्याकरणातीत रूप में तो किसी प्रकार का बन्धन ही नही वहाँ तो सभी

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