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अळकर की धार्मिक नीति
की मूर्ति पूजा का अन्त न कर सका तथा उन्हें दाने दाने को मोहताज नहीं कर सका।
काउद्दीन खिलजी कम के क्षेत्र में अपने पूर्व पालिक सुल्तानों की पंक्ति में नवीन स्थान ग्रहण करता है । यह तो स्पष्ट है कि वह इस्लाम का भक्त था किन्तु उलेमावाँ बादि के हस्तातोप को वह राजनीति में सहन नहीं कर सकता था। यही नहीं राजनैतिक कार्यों के बागे पार्मिक पा को प्राथमिकता भी वह नहीं देता था। जैसा कि बरनी बताता ! " मैं नहीं समझता कि यह बाजार शरा के अनुसार है या शरा के विहद है । मैं जो कुछ राज्य के लिये उचित समझता हूं उनही की वाज्ञा देता हूं । १२ इसी तरह अनेक स्थानों पर वह राजनैतिक कार्यों को प्राथमिकता देता है यही कारण है कि तत्कालीन कटटर लेता बरती ने सुल्तान को अंशत: की विहीन मी प्रदर्शित करने का प्रयास किया है। जैसे ना लिखता है"शराओं की बाशा पालन करने पर वह कोई ध्यान नही देता था । नमाज रोजे का न तो उसे ज्ञान ही था और न जानकारी ही। १३ साथ ही वह यह भी बताता है कि अलाउदीन सा नवीन धर्म की स्थापना करना चाहता था । परन्तु निजामी सका ता संगत खण्डन करते है तथा अपने पा की परिपुष्टि के लिये अनेक मत देते है । १४ अन्तता: यही कहा जा सकता है कि काउदीन में इस्लाम के प्रति निष्ठा तो थी भिन्तु वह राजनीति कार्यों में उसे वापक नहीं होने देना चाहता था।
१२ - बरनी - तारीख • २ • फीरोज शाही इष्ठ २९६ १३ - रिजवी • खिलजी कालीन भारत पृष्ठ ६३ १४ - निजामी - दीपोपीसिव हिस्ट्री मांफ इन्डिया - दी देहली
सल्तनत - भाग ५ पृष्ठ ३३६
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