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अकबर की धार्मिक नीति
होने के लिये अकबर ने किसी को शासकीय सेवाओं में लेने या राज्य के ऊंचे पदों पर नियुक्त करने अथवा अपार धन देने का पलोमन नहीं . दिया । अकबर के सान्निध्य में रहने वाले जिन व्यक्तियों ने दीनालाही: में सम्मिलित होना स्वीकार नहीं पिया, उन पर मी अकबर की अनुकम्पा पूर्ववत ही बनी रही। सत्य तो यह है कि अकबर बड़ा उदार वीर सहन शील था । उसने लोगों को अपनी इच्शनुसार किसी भी धर्म को स्वीकार या वस्वीकार करने तथा अपना व्यक्तिगत धर्म पाने की स्वतंबता दे रखी थी । उसकी धार्मिक नीति और दीन लाही से मतभेद रखने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध पी उसने कोई कदम नहीं उठाये । ऐसी दशा में दीन इलाही के सदस्यों की संख्या में वृद्धि होना असम्भव था । बदायूंनी लिखता है कि अकबर ने दीन इलाही के सदस्य बनाने के लिये शक्ति या दबाव से काम नहीं लिया, यदि वह अधिकारी का प्रयोग करता और इसके प्रसार के लिये थोड़ा भी रुपया व्यय करता तो मेका! नेक सदस्य बना लेता । १७
___अकबर के दीनालाही का जादर्श उसके युग की भावना बोर पार-1 णाओं से बहुत वागे था । साधारण लोग जो इलाम की कटटरता में विश्वास करते थे, उन्होने या तो दीनालाही को अपनाया नहीं या हिचकिचाहट और संशय से इसे स्वीकार किया । वे इसके राजनीतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय महत्व को समझ नही सके । ऐसा प्रतीत होता
कि लावावर की आध्यात्मवादी व धार्मिक विचार धारा उस युग से बहुत बाने थीं । क्योंकि वह युग विभिन्न माँ की पारम्परिक मत • विभिन्नता व संघर्ष का युग था । ऐसे युग में समन्वय और राष्ट्रीय प्रवृति वाले दीन इलाही का प्रसार होना सम्भव था । स लिये दीन-1 हलाही अकबर के देहावसान के साथ ही समाप्त हो गया।
17- A1-Badaani. Trans. by N.H.Lon0 Vol. II P. 323.
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