Book Title: Akbar ki Dharmik Niti
Author(s): Nina Jain
Publisher: Maharani Lakshmibhai Kala evam Vanijya Mahavidyalay

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Page 128
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकबर की धार्मिक नीति होने के लिये अकबर ने किसी को शासकीय सेवाओं में लेने या राज्य के ऊंचे पदों पर नियुक्त करने अथवा अपार धन देने का पलोमन नहीं . दिया । अकबर के सान्निध्य में रहने वाले जिन व्यक्तियों ने दीनालाही: में सम्मिलित होना स्वीकार नहीं पिया, उन पर मी अकबर की अनुकम्पा पूर्ववत ही बनी रही। सत्य तो यह है कि अकबर बड़ा उदार वीर सहन शील था । उसने लोगों को अपनी इच्शनुसार किसी भी धर्म को स्वीकार या वस्वीकार करने तथा अपना व्यक्तिगत धर्म पाने की स्वतंबता दे रखी थी । उसकी धार्मिक नीति और दीन लाही से मतभेद रखने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध पी उसने कोई कदम नहीं उठाये । ऐसी दशा में दीन इलाही के सदस्यों की संख्या में वृद्धि होना असम्भव था । बदायूंनी लिखता है कि अकबर ने दीन इलाही के सदस्य बनाने के लिये शक्ति या दबाव से काम नहीं लिया, यदि वह अधिकारी का प्रयोग करता और इसके प्रसार के लिये थोड़ा भी रुपया व्यय करता तो मेका! नेक सदस्य बना लेता । १७ ___अकबर के दीनालाही का जादर्श उसके युग की भावना बोर पार-1 णाओं से बहुत वागे था । साधारण लोग जो इलाम की कटटरता में विश्वास करते थे, उन्होने या तो दीनालाही को अपनाया नहीं या हिचकिचाहट और संशय से इसे स्वीकार किया । वे इसके राजनीतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय महत्व को समझ नही सके । ऐसा प्रतीत होता कि लावावर की आध्यात्मवादी व धार्मिक विचार धारा उस युग से बहुत बाने थीं । क्योंकि वह युग विभिन्न माँ की पारम्परिक मत • विभिन्नता व संघर्ष का युग था । ऐसे युग में समन्वय और राष्ट्रीय प्रवृति वाले दीन इलाही का प्रसार होना सम्भव था । स लिये दीन-1 हलाही अकबर के देहावसान के साथ ही समाप्त हो गया। 17- A1-Badaani. Trans. by N.H.Lon0 Vol. II P. 323. For Private And Personal Use Only

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