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अकबर
१८
की धार्मिक नीति
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सिन्थ का सुवेदार था किन्तु ईश्वरी प्रसाद यह बताते है कि वह सुवेदार न होकर राजस्व अधिकारी था । इससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उसका अपनी वहुसंख्यक प्रजा से धर्म के कारण असहिष्णुता पूर्ण व्यवहार नहीं
था ।
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इस्लाम के प्रति मोहम्मद की पूर्ण निष्ठा थी हव्नवत्ता उसकी नमाज की दिल खोल कर प्रशंसा करता है। वरनी ने भी उसकी दानशीलता तथा नमाज के प्रति रूचि का स्पष्ट विवरण दिया है किन्तु मुसलिम को कटु दण्ड के समय वह आक्रोशित हो जाता है और सुल्तान की बुराई करने मैं किसी प्रकार पीछे नहीं हटता । वह बड़े सुन्दर शब्दों में लिखता है - कि एक और मैं उसकी धर्मं निष्ठता और नम्रता अपनी आंखों से देखता था तो दूसरी ओर कोई दिन ऐसा व्यतीत नहीं होता था जव कि सुन्नी मुसलमानों के शीबा खीरे ककड़ी की भांति न काट डाले जाते हो । ऐसा कोई सप्ताह व्यतीत नहीं होता था जब कि अनेक मुसलमानों की हत्या न कराई जाती हो । वीर उसके महल के व्दार के बागे रक्त की नदी न वहती हो । १८ इस प्रकार उसने मुसलिम जनता को भी कठोर दण्ड दिये किन्तु इन दण्डों के फल स्वरूप मुसलिम प्रजा उससे नाराज हो गयी और विद्रोह करने लगी । जिससे प्रभावित होकर उसने क्टीफा से आज्ञा पत्र प्राप्त करने के लिये वही सेवा की । वरनी लिखता है कि देहली मैं कुब्वै सजाये गये सुल्तान अमीरुल मोमिनीन की लिवा तथा मनशूर अपने सिर पर रख कर शहर के व्दार से महल के व्दार के भीतर तक गया और अत्याधिक आदर सम्मान किया ।
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रिजवी - तुगलक कालीन भारत
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भाग १ पृष्ठ ३६
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