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अकबर
की धार्मिक नीति
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खाज्ञा जारी करना उचित समझेंगे तो सभी लोग उसे मानने के लिये बाध्य समझे जायेंगे । और इसका विरोध करने से इस लोक में धार्मिक अधिकार तथा वह धन सम्पदा से वंचित होना पड़ेगा तथा दूसरे लोक मैं कष्ट मिलेगा यह प्रपत्र विशुद्ध भावनाओं के साथ ईश्वर की कीर्ति और इस्लाम के प्रचार के लिये लिखा गया है और हम धर्म प्रमुख उत्पान और प्रमुख धर्म शास्त्रियों ने ६८७ हिजरी के रजब महीने में इस पर हस्ताक्षर किये है। १३
उपर्युक्त प्रपत्रसेवकमर को यह अधिकार प्राप्त हो गया कि वह मुसलिम धर्मशास्त्रियों के विरोधी मतों में से किसी एक को स्वीकार करें तथा मतमेद विहीन मामलों पर किसी भी नीति को निर्धारित करें, बशर्ते कि वह कुरान विहीत न हो। इस प्रकार अब अकबर ने स्वयं वह अधिकार प्राप्त कर लिये जो अब तक उलेमानों के बौर विशेष रूप से प्रमुख सदर के अधिकार माने जाते थे । अब से वह मुसलमान प्रजाजनों के लिये धार्मिक सत्ताधिपति मी बन गया ।
अकबर के उतना पढ़ने से घोषणा पत्र प्रसारित करने से तथा सभी धर्मो के प्रति सहिष्णुता की नीति अपनाने से अनुदार मुसलमान और उल्माव ने अपना तीव्र असन्तोष प्रगट किया वीर यह दोष लगाया कि वह स्वयं में देवत्व का दावा करता है, अपने लिये ईश्वर के पैगम्बर का प्रक पद प्राप्त करना चाहता है।
पर ये आरोप निराधार है, क्योंकि अकबर ने कहा कि वह अपने मैं देवत्व का, ईश्वरीय अंश होने का दावा करने की कल्पना भी नहीं कर सकता । वह इस्लाम का अनादर भी नहीं करता था, अपितु उसके सत्य सिद्धान्तों के प्रति गहरी वास्था रखता था । सन् १५७५ से १५८० तक की इसी अवधि में अकबर ने प्रति वर्ष भारत से मक्का मदीना की तीर्थ यात्रा पर जाने वाले मुखमान यात्रियों के कारवां की व्यवस्था
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Al-Ba da ami. Trans, by W.H.Lowe Vol. II P.P.279-280
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