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अकबर
की धार्मिक नीति
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अकबर ने पारसियों की पवित्र सुद्रेह या सदरी बीर कुश्ती भी धारण कर ही थी । सदरी और कुश्तरी पहन कर वह अपने दरबारियों मैं राजसिंहासन पर बैठता था । पादरियों के त्यौहारों बार पवित्र दिनों को भी अकबर ने मनाना प्रारम्भ कर दिया था । १५८२ से उसने पारसियों के नव वर्ण व चौदह त्यौहारों को अपनाना प्रारम्भ कर दिया था । इन चौदह त्योहारों का विवरण हमें वाहन अकबरी मैं मिलता है । पारसियों के ये चौदह त्यौहार इस प्रकार से हैं : 1.19th of Earvardin,2. 3rd of Aribehesht 3.6thof Khurdan 4. 13th of Tir. 5. 7th of Amardad 6. 4th of Shehrivar 7.6th of Meher 8. 10th of Avan. 9. 9th of Adar.10.8th of Deh 11. 15th of Deh, 12.23rd of Deh. 13.2nd of Behman.14.5th of Aspann darmad.10"
लेकिन इससे यह नही समझ लेना चाहिये कि अकबर पूर्ण रूपेण उनके धर्म मैं दीक्षित हो गया था तो प्रत्येक धर्म की सत्यता जानना चाहता था । इस लिये उसने पारसी धर्माचार्यों से उनके धर्म के सिद्धान्तों और परम्पराओं का ज्ञान प्राप्त किया ।
अकबर और जैन धर्म :
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अबुल फजल ने वाहन ए अकबरी में दरबार में रहने वाले विद्वानों का वर्गीकरण किया है। प्रथम वर्ग में वे लोग थे जो कि दोनों लोकों का रहस्य जानते थे । दूसरे वर्ग में मन और हृदय के ज्ञाता थे, तीसरे वर्ग में धर्म और दर्शन शास्त्र के ज्ञाता, चौथे वर्ग में दारीनिक तथा पांचवे वर्ग ने वे लोग थे जो कि परीक्षण तथा पर्यालोचना पर जाश्रित विज्ञान के जानने वाले थे । इन सम्पूर्ण वग में अबुल फ
तीन जैन विनों के नाम गिनाये है । इनमें आचार्य श्री हीरविजयसूरि तो प्रथम वर्ग में थे और विजयसेन सूरि तथा मानुचन्द्र उपाध्याय पांचवे वर्ग
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10- Ain-i-Akbari Vol. I Trans. by Blochman 276.
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