________________ शब्द हैं / (स्थानकवासी) आचार्य आत्माराम जी सर्वप्रथम समवायाङ्गसूत्र में मिलता है / प्रो० ने प्रकीर्णक की व्याख्या निम्न प्रकार से की है- सागरमल जैन के अनुसार प्रारम्भ में अङ्ग ___ "अरिहंत के उपदिष्ट श्रुतों के आधार पर आगमों से इतर आवश्यक, आवश्यक व्यतिरिक्त, श्रमण निर्ग्रन्थ भक्ति भावना तथा श्रद्धावश मूल कालिक एवम् उत्कालिक के रूप में वर्गीकृत सभी भावना से दूर न रहते हुए जिन ग्रन्थों का निर्माण ग्रन्थ प्रकीर्णक कहलाते थे / उन्होंने इसके प्रमाण करते हैं, उन्हें 'प्रकीर्णक' कहते हैं / " प्रकीर्णकों स्वरूप षट्खण्डागम की धवला टीका का उल्लेख की रचना करने का दूसरा उद्देश्य यह भी समझा किया है जिसमें 12 अङ्ग आगमों से भिन्न जा सकता है कि इनसे सर्वसाधारण आसानी से अङ्गबाह्य ग्रन्थों को प्रकीर्णक नाम दिया है / धर्म की और उन्मुख हो सके / "अङ्गबहिर-चोद्दसपइण्णयज्झाया" / इसमें ___प्राचीन आगम ग्रन्थों में ऐसा कहीं भी स्पष्ट उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि उल्लेख नहीं है कि अमुक-अमुक ग्रन्थ प्रकीर्णक को भी प्रकीर्णक ही कहा गया है / यह भी के अन्तर्गत हैं / नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र दोनों ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णक नाम से अभिहित अथवा में आगमों के विभिन्न वर्गों में कहीं भी प्रकीर्णक प्रकीर्णक वर्ग में समाहित सभी ग्रन्थों के नाम के वर्ग का उल्लेख नहीं है / यद्यपि इन दोनों ग्रन्थों में, अन्त में प्रकीर्णक शब्द तो नहीं मिलता है, मात्र आज हम जिन्हें प्रकीर्णक मानते हैं, उनमें से 9 कुछ ही ग्रन्थ ऐसे हैं जिनके नाम के अन्त में ग्रन्थों का उल्लेख कालिक एवम् उत्कालिक प्रकीर्णक शब्द का उल्लेख हुआ है फिर भी इतना आगमों के अन्तर्गत आता है / कालिक के निश्चित है कि प्रकीर्णकों का अस्तित्व अन्तर्गत ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति एवम् अतिप्राचीन काल में भी रहा है, चाहे उन्हें उत्कालिक के अन्तर्गत देवेन्द्रस्तव, . प्रकीर्णक नाम से अभिहित किया गया हो अथवा तन्दुलवैचारिक, चन्द्रकवेध्यक, गणिविद्या, न किया गया हो / नन्दीसूत्रकार ने अङ्ग आगमों आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और को छोड़कर आगम रूप में मान्य अन्य सभी ग्रन्थों मरणविभक्ति आता है / आगमों का अङ्ग, को प्रकीर्णक कहा है / (नन्दीसूत्र, सम्पा० मुनि उपाङ्ग, छेदसूत्र, मूलसूत्र, चूलिका एवं प्रकीर्णक मधुकर, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, ई० सन् के रूप में विभाजन सर्वप्रथम आचार्य जिनप्रभ 1982, सूत्र 81) अतः प्रकीर्णक शब्द आज जितने के विधिमार्गप्रपा (ईसा की १४वीं शताब्दी) में सङ्कुचित अर्थ में है उतना पूर्व में नहीं था / मिलता है। उमास्वाति और देववाचक के समय में तो अङ्ग अङ्ग आगमों में 'प्रकीर्णक' का उल्लेख आगमों के अतिरिक्त शेष सभी आगमों को 3. प्रो. सागरमल जैन एवं सुरेश सिसोदिया, सम्पा० प्रकीर्णक साहित्यः मनन और मीमांसा, उदयपुर 1996 ईस्वी. पृ०२ 4. धवला, पुस्तक-१३, खण्ड-५, भाग-५, सूत्र-४८, पृ. 276 उद्धृत जैनन्द्र सिद्धान्तकारो, भाग-४, पृ०७० / 5. धवला, पुस्तक-१३, खण्ड-५, भाग-५, सूत्र-४८, पृ. 276 उद्धृत जैनन्द्रसिद्धान्तकारो, भाग-४, पृ. 70 / प्रकीर्णक साहित्य : एक अवलोकन 31