Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. २.३१ अविशुद्ध-विशुद्धलेश्यानगारनि० 'णो इण सम' नायमर्थः समर्थः अविशुद्धलेश्यतया यथावस्थितवस्तु परिच्छे. दस्याशक्यत्वादिति ६ । तदेवमविशुद्धलेsये ज्ञारि साधौ षट् सूत्राणि प्रदर्श्य विशुद्धलेश्ये ज्ञातरि साधौ पट् सूत्राणि दर्शयति- 'वियुद्धले सेणं' इत्यादि, विशुद्धलेस्से णं भंते । अणगारे' विशुद्ध छेश्य:- शुक्ललेायुक्तः अनगार: 'असमत्रहपूर्ण अप्पाणं' असमवहतेन - वेदनादि समुद्घातरहितेन 'अवशुद्धलेस्सं देवं देवि अणगार' अविशुद्धलेश्यं - कृष्णादिलेश्यायुक्तं देवं देवीमनगरम् ' जाणइ पास ' जानाति पश्यति किमिति प्रश्नः, भगवानाह - 'हंता' इत्यादि, 'हंता जाणइ पास '
लेश्या वाले देव को देवी को या अनगार को क्या जानता देखता है ? ऐसा यह छठवां मन है - इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं- 'गोयमा ! जो इण्डे समट्टे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है- क्योंकि ऐसी स्थिति में उम्य अनगार का ज्ञान यथार्थं वस्तु प्रदर्शक नहीं होता है । इस प्रकार से अविशुद्ध लेश्या वाले ज्ञाता साधु के सम्बन्ध में छह सूत्र को दिखाकर अब विशुद्ध लेश्याबाले ज्ञाता साधु के सम्बन्ध में छह सूत्रों को सूत्रकार द्वारा दिखाया जाता है- 'विसुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे असमोहरणं अपाण अविसुद्ध लेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पास ' इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा प्रश्न किया है कि हे भदन्त ! जो अनगार विशुद्ध लेश्या वाला है- प्रशस्त लेइया वाला है - और वेदनादि समुद्घात से रहित हैं - तो क्या वह स्वयं के द्वारा अविशुद्ध लेवा वाले - कृष्णादि लेश्या वाले देव कों देवी को तथा अनगार को क्या
હાય, તેા શુ' એવા તે અણુગાર સ્વયં વિશુદ્ધ વૈશ્યાવાળા દેવને કે દેવીને અથવા અનગારને જાણે છે? કે દેખે છે? આ પ્રમાણેના આ છઠ્ઠો પ્રશ્ન पूछे छे. या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री गौतमस्वामीने हे छे ! गोयमा ! णो इट्टे समट्टे' हे गौतम! आा अर्थ मरोर नथी प्रेम सेवी स्थितिभां તે અનગારનુ જ્ઞાન યથાર્થ વસ્તુને જાણવાવાળુ હેતુ' નથી આ રીતે અવિશુદ્ધ વૈશ્યાને જાણવાવાળા સાધુના સમધમાં છ સૂત્રેાને બતાવીને હવે વિશુદ્ધ वेश्यावाणा ज्ञाता साधुना संबंध छ सूत्र वामां आवे छे. 'विसुद्वले सेणं भ'ते ! अणगारे असमहणं अप्पाणेणं अविसद्धटेरस देव देवि अणगार जाणइ પાસ' આમાં શ્રીગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવા પ્રશ્ન પૂછયે છે કે હે ભગવન્ જે અણગાર વિશુદ્ધ વૈશ્યાવાળા છે, અર્થાત્ પ્રશસ્ત લેશ્યાાળા છે, અને વેદના વિગેરે સમુદ્દાત વિનાના છે, તા શું તે સ્વયં અવિશુદ્ધ લેશ્યાવાળા કૃષ્ણાદિ લેશ્યાવાળા દેવને દેવીને તથા અણુગારને શું જાણે છે ? કે દેખે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રીને ગૌતમસ્વામીને