Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 874
________________ जीयामिगमले मारसनाइयमुरम्मा' शुक्रवाहिमदनशलाकाफोकिलकोरकभृङ्गारककोंडलक जी जीवनन्दीमुखकपिलपिङ्गलाक्षकारण्डवचक्रवाककलहंससारसारूपानामनेकेपो शकु. नगणानां मिथुनै। स्त्रीपुरुपयुग्मविरचितम् इतस्ततो गतं यच्च शब्दन्नतिकम् उन्नतशब्दकं मधुम्स्वरं च नादितं नापित येषु ते तया, अतएव मुरम्या:-मुष्टुरमणीयाः, अत्र शुक्रा:-कीरा, वणिो मयूराः मदनशलाका सारिका, चक्रवाक. हंससारसा लोकमसिद्धा एव, एतदन्ये पक्षिविशेपास्तु लोकत एच झातव्याः। रथा-'संविडियदप्पियमयरमहुयरीपहरा' संपिण्डिता:, एकत्र पिण्डिभूताहप्ता मदोन्मत्ततया दध्माता भ्रमरमधुकरीणाम् पहकरा:-साता यत्र ते संपि. डिरमभ्रमरम्मधुकरीपहकराः, तथा-'पनिळीयमाणमत्तछप्पयकुममासवलोलमहुर. गुमगुयायंत गुंजतदेसमागा' परिलीयमाना:-अन्यत आगत्यागत्य श्रयन्तो मत्ताः के जोडे बैठे बैठे बहुत दूरू तक सुने जाने वाले उन्नत शब्दवाले ऐसे मधुर स्वरोपेत शब्दों को करते रहते है चहचहाते रहते हैं इससे इन वृक्षों को सुन्दरता में विशेषता आजाती है इन वृक्षों के ऊपर 'संपिडियदप्पियभमरमटुथरी पहकरा-संपिण्डिाद्रप्तभ्रमरमधुकरी पहा करा' मधुका संचयकरनेवाले उन्मत्त पिन्डीभूतभ्रमरों का और भ्रमरियों का समूहभी बैठा रहता है। 'परिलीयमाणमत्तछप्पयकुसुमासवलोलमहुग्गुमगुमायमानगुनद्देसभागा-परिलीयमानमत्त पट् पद कुसुमामवलोलमधुर गुम गुमायमान गुञ्जदेशभागाः' इन वृक्षों के इधर उधर के पास के स्थानों में बाहर से आए हुए अनेक भ्रमर बैठे रहते है ये मधुपान से मदोन्मत्त होते है। तथा किन्नरक-पुष्पपराग के पानकरने में इनकी लंपटता यनी रहती है मधुर मधुर रूप से ये गुम પક્ષિઓના જોડલાઓ બેઠા બેઠા ઘણે દૂર સુધી સંભળાતા અને ઉચ્ચ સ્વર ચકત એવા મધુર સ્વરવાળા રમણીય શબ્દો કરતા રહે છે. ચહચહાતા રહે છે. એથી એ વૃની સુંદરતામાં વિશેષ શેભા જણાઈ આવે છે એ वृक्षानी 6५२ 'सपिडियदप्पियभमर महुयरीपहकरा-सपिडितद्रप्तभ्रमरमधुकरी प्रहकरा; भवन। सबर ४२वावा भत्त पिसभूत सभरायांनी भने सभीयाना समूह ५ मे सी २९ छे. 'परिलीयमाणमत्त छप्पय कुसुमासबलोलभ गुर गुमगुमायमानगुजद्देमभागा-परिलीयमानमत्तपट्पद कुसुमासवलो लमधुरगुमगुमायमानगुरुजवेशभागा' से वृक्षानी मासपासना मागमा महारथी આવેલા અનેક ભમરાઓ બેસી રહે છે, અને મધુપાન કરીને મદેન્મત્ત બને છે. તથા કિંજલક–પુષ્પપરાગનું પાન કરવામાં તેનું લંપટ પણું જણાઈ આવે છે. તેઓ મધુર મધુર શબ્દોથી ગુમ રુમાયમાન રહે છે. અર્થાત્ ગણું

Loading...

Page Navigation
1 ... 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918 919 920 921 922 923 924 925 926 927 928 929