Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीक्षा लेते ही यावज्जीवन पर्यन्त बेले-बेले पारणे में आयम्बिल करने की उन की प्रतिज्ञा सुनकर हृदय थरथराने लगता है, कहां तो ऊंचे महलों में संसारिक सुखों का विविध अनुभव, कहां मनोऽनुकूल राग-रागनियों का सुनना, कहां विविध नाटकों का दृश्य
और कहां इसी जीवन में भूमि - शय्या, खुले पांव चलना, शीत उष्ण का सहना तथा ऐसे उग्र तप को धारण कर बिचरना । जो विविध प्रकार के भोजन का आस्वादन करते थे वेही उसी जीवन में शुष्क आहार को लाते और उसे भी २१ बार धोकर आयम्बिल में आहार करते, यह त्याग और तप की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है ? । उन के तपोजीवन से हमें उपदेश मिलता है कि-त्यागियों को रस-लोलुपता जरा भी नहीं होनी चाहिये, उन्हें निरवद्य अशनादि जैसा भी मिल जाय उसी को मध्यस्थ भाव से ग्रहणकर आहार करना चाहियेह। उस तपश्चर्या के करने से उन के शरीर के पांव, पांवों की ऊंगलियां, जोहा (पिण्डी ) घुटने, उरु (साथल) कटि (कमर) पेट, हदय की पसलियें, पीठ, वक्षस्थल, भुजायें, हाथ, हाथों की ऊंगलिया, गर्दन, दाढी, ओष्ठ, जिह्वा, नासिका, आँखें, कान, मस्तक, आदि अंग रक्त मांस के सूख जाने से किस प्रकार की स्थिति को प्राप्त हुए यह सारा विषय पाठकों को पूर्ण ध्यान - पूर्वक पढना चाहिये । इस प्रकार की शरीर-स्थिति तपश्चर्या द्वारा प्राप्त होने पर भी उन की अन्तरात्मा किस प्रकार दीप्त थी वह श्रेणिक राजा के प्रत्यक्ष दर्शन करने पर उन द्वारा की गई स्तुति के पढने से भलीभांति मालूम हो सकेगी। इसी प्रकार स्वयं महावीर प्रभुद्वारा बताई हुई १४ हजार मुनियों के बीच की मुख्यता भी स्वीकार किये वगर हम रह नहीं सकते । तभी तो राजा श्रेणिक भी सभी मुनियों में अति दुष्कर करनी करनेवाले धन्ना मुनि को देखकर हर्षोन्मत्त बन उसी समय उन की स्तुति की।
धन्ना अनगार अपने शरीर की जर्जर हालत देख संथारा करने के लिए भगवान की आज्ञा ली और अन्त में एक मास का सथारा कर सर्वार्थसिद्ध विमान को प्राप्त हुए । ऐसे भावितात्मा की
શ્રી અનુત્તરોપપાતિક સૂત્ર