Book Title: Aendra Stuti Chaturvinshika Sah Swo Vivaran
Author(s): Yashovijay Upadhyay, Punyavijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 10
________________ काव्य पाद ६९ ६९ เก ७१ ८८ ८८ प्रस्तावना. १ व्यमुखचक्रवर्त्तिलक्ष्मीं० ३ विगणितचक्रवर्त्तिवैभवं० १ भीममहाभवान्धि० १ भीमभवोदघे० १ हस्तालम्बितचूत लुम्बिलतिका यस्या जनोऽभ्यागमत् शो० ३ दद्यान्नित्यमिताम्रलुम्बिलतिकाविभ्राजिहस्ताऽहितम् ऐ० अहीं जे वाक्योनी नोंध आपी छे ते उपाध्यायजीए पद - वाक्यादिनुं. आहरण केवुं कर्तुं छे ते जाणवा माटे । विशेषणो अने भावार्थनं आहरण तो आखी स्तुतिमां स्थळे स्थळे जोवामां आवे छे। तेनां उदाहरणो आ स्थळे न आपतां जिज्ञासुओने ते स्तुति साथै सरखाक्वा भलामण छे । Jain Education International शौंο उपर कहेवामां आव्युं के - ' प्रस्तुत चतुर्विंशतिका शोभनस्तुतिना अनुकरणरूप छे' ए उपरथी कोइए एम न मानी लेबुं के आ चतुविंशतिकामां कशी नवीनता ज नथी । उपाध्यायजीनी एवी कोइ कृति ज नथी के जेमां नवीनता तेम ज गांभीर्य न होय । ते मंभीस्ताने तेओश्रीए स्वयं टीकामां स्थळे स्थळे प्रकट करेल छे । अमे तें पंक्तिओने स्थूलाक्षरमां छपानी छे । आ पंक्तिओ शास्त्रीय गंभीर विद्यारोथी भरपूर छे । आ ठेकाणे एक वात कहेवी जोइए के-जेम अन्य प्रतिभासंपन्न विद्वान् कविओनी यमकालंकारमय कृतिभो विष्टार्थत्व] दूरान्वयत्क आदि दोषोथी वंचित नथी रही शकी, ते ज प्रमाणे उपाध्यायजीनी प्रस्तुत कृति पण ते दोषोषी वंचित नथी ज रही की । जो के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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