Book Title: Aendra Stuti Chaturvinshika Sah Swo Vivaran
Author(s): Yashovijay Upadhyay, Punyavijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 8
________________ प्रस्तावना. आथी इतर अल्प प्रमाणमा ज जोवामां आवे छे, जेनी नोंध पण उपर लीधी छे । भिन्न भिन्न आचार्यादिकृत पर्वतिथिमाहात्म्यगर्भित तीर्थमाहात्म्यगर्मित तेम ज तीर्थकरोनी छुटक स्तुतिओ यमक पादपूर्तिरूप तथा सामान्यछन्दरूप घणा ज विस्तीर्ण प्रमाणमा उपलब्ध थाय छे। ___ आ सर्व चतुर्विंशतिकाओमांनी अगर छुटक कोइ पण चार पद्यनी स्तुति देववन्दनमा कायोत्सर्ग कर्या पछी अवश्य बोलवानी होय छे । तेमां नीचे प्रमाणेना अर्थाधिकारो-विषयो होय छे अथवा होवा जोइए अहिगयजिण पढम थुई, बीआ सबाण तइअ नाणस्स। वेयावच्चगराणं, उवओगत्थं चउत्थ थुई ॥५२॥ देववन्दनभाष्य ॥ * अर्थात्-प्रथम स्तुतिमां विवक्षित कोई एक तीर्थकरनी स्तुति, बीजीमां सर्व जिनोनी स्तुति, त्रीजीमां जिनप्रवचननी अने चोथीमां वैयावृत्यकर देवताओ, स्मरण । ___ उपर जे स्तुतिचतुर्विंशतिकाओनी सूची आपवामां आवी छे ते पैकी शोभनमुनिकृत चतुर्विंशतिकाना अनुकरणरूप आपणी प्रस्तुत चतुर्विंशतिका छे एम तेनी साथे सरखावतां स्पष्ट रीते तरी आवे छे । आ अनुकरण छन्द अलंकार विशेषण भावार्थ आदि अनेक रीते करवामां आव्युं छे, एटलं ज नहि पण केटलेक स्थळे तो वाक्यनां वाक्यो अने पदनां पदो पण नहि जेवो फेरफार करीने जेमनी तेस उपाध्यायजीए आहरी लीधा छ । जो आपणे बराबर तारवण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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