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[ २ ]
( १ ) कुलज, सहज या प्रकृतिज (Hereditary, congenital or constitutional)
( २ ) हीनयोग या आवश्यक द्रव्यों की कमी
( ३ ) तृणाणुज, कीटाणुज या कृमिज उपसर्ग ( Infections)
( ४ ) अभिघात ( Trauma )
( ५ ) भौतिक ( Physical )
( ६ ) रासायनिक ( Chemical ) ।
आयुर्वेद में भी रोगकारक हेतुओं का वर्गीकरण शब्दभेद से इसी प्रकार का हैआदिबलप्रवृत्ताः, जन्मबलप्रवृत्ताः, संघातबलप्रवृत्ताः, दैवबलप्रवृत्ताः, स्वभावबलप्रवृत्ताः । सुश्रुत सूत्र २४ ॥ (तुलनात्मकविवरण के लिए लेखक की उक्त सूत्र की टीका देखिये) । ये रोगकारक हेतु जिस प्रकार से विकृतियों को उत्पन्न करते हैं उसको विकृतिजनन या संप्राप्ति (Pathogenesis ) कहते हैं -
यथादुष्टेन दोषेण यथा चानुविसर्पता ।
निवृत्तिरामयस्यासौ सम्प्राप्तिर्जातिरागतिः ॥ ( माधवनिदान )
रोगकारक हेतुओं से शरीर के धात्वाशयादि अंगों में जो अस्वस्थ अवस्थाएँ या स्थित्यन्तर उत्पन्न होते हैं उनको विकृतियाँ ( Morbidity ), इन विकृतियों से युक्त धातु, अंग या आशय के विवरण को विकृतशारीर ( Morbid anatomy ) और इन विकृतियों के शास्त्र को विकृतिविज्ञान ( Pathology ) कहते हैं । शरीर के धात्वाशयादि अंगों में होनेवाली विकृतियाँ अनंत होते हुए भी प्रतिक्रिया ( Reaction ), शोथ ( Inflammation ), जीर्णोद्वार ( Repair ), वृद्धि में बाधा ( Disturbance in growth ), अपजनन ( Degeneration ), अर्बुद ( Tumour ) इत्यादि कुछ इने गिने सामान्य प्रकार की होती हैं । जब शरीरगत संपूर्ण विकृतियों का तथा उनके हेतुओं का विवरण उपर्युक्त सर्वसाधारण प्रकारों के अनुसार किया जाता है तब उसको सामान्य विकृतिविज्ञान ( General Pathology ) और जब शरीर के प्रत्येक अंग, आशय या संस्थान का विवरण उसमें होनेवाली उपर्युक्त प्रकार की विकृतियों के साथ स्वतन्त्रतया किया जाता है तब उसको विशेष विकृतिविज्ञान ( Special Pathology ) कहते हैं। जब शरीर के भीतरी इन विकृतियों का स्वरूप आसानी से इन्द्रियग्राह्य होता है तब उसको स्थूल ( Gross ) और जब असंलच्य स्वरूप का होने से देखने के लिए सूक्ष्मदर्शक की आवश्यकता होती है तब उसको सूक्ष्म ( Microscopic ) कहते हैं ।
विकृतिविज्ञान का विकास - विविध रोगकारक हेतुओं से शरीर के धात्वाशयादि अंगों में जो विविध विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं उनका कार्यकारणभाव प्रदर्शित करना,
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