Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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127. अज्ञानी, सूअर मज्जत्यज्ञः किलाज्ञाने, विष्ठायामिव शूकरः ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 1980]
- ज्ञानसार - 50 जैसे सूअर हमेशा विष्टा में मग्न रहता है, वैसे ही अज्ञानी सदा अज्ञान में ही मस्त रहता है। 128. ज्ञान और विनय विणएण लहइ नाणं, नाणेण विजाणइ विणयं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 1980]
- दसपयन्ना-चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक - 62 विनय से ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञान से विनय जाना जाता है । 129. ग्रन्थिभिद् ज्ञान-दृष्टि
अस्ति चेद् ग्रन्थिभिद्ज्ञानं, किं चित्रैस्तन्त्रयन्त्रणैः । प्रदीपा क्वोपयुज्यन्ते, तमोऽनी दृष्टिरेव चेत् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 1980]
- ज्ञानसार 5/6 जिसने अन्तरङ्ग राग-द्वेष मोहग्रंथि का आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया हो, उसे विविध तन्त्र-मन्त्र और यन्त्र शास्त्रों की क्या आवश्यकता ? जब अन्धकार का भेदन करनेवाली दृष्टि ही तुम्हारे पास है तो कृत्रिम दीपमाला का क्या प्रयोजन है ? 130. वही श्रेष्ठ ज्ञान
निर्वाण पदमप्येकं, भाव्यते यन्मुहुर्मुहुः । तदेव ज्ञानमुत्कृष्टं निर्बन्धो नास्ति भूयसा ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 1980]
- ज्ञानसार 52 एक भी निर्वाण साधक पद, जो कि बार-बार आत्मा के साथ भावित किया जाता है, वहीं श्रेष्ठ ज्ञान है। अधिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 89
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