Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2705]
- सूत्रकृतांग - 10/32 . श्रमण आचार्यों (ज्ञानीजनों) के निकट रहकर सदा आर्य-धर्म कर्तव्य अथवा आचरणीय धर्म सीखें । 395. साधक अक्रुद्ध हम्ममाणो न कुप्पेज्जा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 27051
- सूत्रकृतांग - 10/BI प्रहार करनेवाले पर साधक कुद्ध न हो। 396. समाधिज्ञ जे दूमण तेहि णो णया, ते जाणंति समाहिमाहियं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 2706]
- सूत्रकृतांग - INAA7_ जो शब्दादि इन्द्रियों के विषय में प्रविष्ट नहीं हुए हैं, वे आत्मस्थित पुरुष ही समाधि को जानते हैं। 397. अपराजित धर्म
कुजए अपराजिए जहा, अक्खेहि कुसलेहि दिव्वयं । कडमेव गहाय णो कलिं, जो तेयं नो चेव दावरं ।। एवं लोगम्मि ताइणा, बुइएऽयं धम्मे अणुत्तरे । तं गिण्हं हितं ति उत्तम, कडमिव सेसऽव हाय पंडिए ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2706]
- सूत्रकृतांग - 1 2/23-24 जुआ खेलने में जुआरी जैसे कुशल पाशों से खेलता हुआ 'कृत' नाम के पाशे को ही अपनाकर अपराजित रहता है। शेष अन्य कलि, द्वापर
और त्रेता इन तीन पाशों को वह नहीं अपनाता है अर्थात् उनसे नहीं खेलता है। वैसे ही पंडित पुरुष भी, इसलोक में जगत्त्राता सर्वज्ञोंने जो उत्तम और अनुत्तर धर्म कहा है; उसे अपने हित के लिए ग्रहण करें । शेष सभी धर्मों को उसीप्रकार छोड़ दें, जिसतरह कुशल जुआरी 'कृत' पाशे के अतिरिक्त अन्य सभी पाशों को छोड़ देता है; क्योंकि वहीं धर्म हितकर और उत्तम है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 . 156