Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
View full book text
________________
जब आत्मा मन-वचन और काया के योगों का निरोध कर शैलेशी अवस्था को प्राप्त करती है, तब वह कर्मों का क्षयकर सर्वथा मलरहित होकर मोक्ष पाती है ।
433. संयम, पारसमणि
जया संवर मुक्किट्ठे; धम्मं फासे अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरयं, अबोहि कलुसं कडं ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2724] दशवैकालिक - 4/43
जब साधक उत्कृष्ट संयमरूपी धर्म का स्पर्श करता है, तब आत्मा पर लगी हुई मिथ्यात्व-जनित कर्म-रज को झाड़ कर दूर कर देता है ।
434. अपरिग्रही साधक
-
-
जया निव्विंदए भोए, जे दिव्वे जे य माणुसे । तया चयइ संजोगं, सब्भितर बाहिरं ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 4 पृ. 2724] दशवैकालिक - 4/40
जब मनुष्य दैविक और मानुषिक भोगों से विरक्त हो जाता हैं तब वह बाह्याभ्यन्तर परिग्रह को छोड़कर आत्म-साधना में जुट जाता है। 435. उत्कृष्ट संयमधारक
-
-
+
जया मुंडे भवित्ताणं पव्वंइए अणगारियं । तया संवर मुक्किट्ठे, धम्मं फासे अणुत्तरं ॥
-
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 4 पृ. 2724]दशवैकालिक 4/42
जब साधक सिर मुंडवाकर अणगार धर्म को स्वीकार करता है, तब वह उत्कृष्ट संयम रूपी धर्म का आचरण कर सकता है ।
436. सिद्ध शाश्वत
-
सिद्धो भवइ सासओ ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2724]
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4166