Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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200. तप वही !
सो हु तवो कायव्वो जेण मणोऽमंगलं न चिंतेइ । जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न ायंति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग पृ. 2204]
- महानिशीथ चूर्णि वही तप करना चाहिए जिससे कि मन अमंगल न सोचे, इन्द्रियों की हानि न हो और नित्यप्रति की योग-धर्म क्रियाओं में विघ्न न आएँ। 201. निष्काम तप नो पूयणं तवसा आवहेज्जा।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2204]
- सूत्रकृतांग - IMAT तप के द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा की अभिलाषा नहीं करनी चाहिए। 202. वाणी-तप
अनुद्वेगकरं वाक्यं, सत्यं प्रियहितं च यत् । स्वाध्यायाभ्यसनं, चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2205]
- भगवद्गीता 1705 उद्वेग न करनेवाला, प्रिय, हितकारी यथार्थ सत्य-भाषण और स्वाध्याय का अभ्यास-वे सब वाणी के तप कहे जाते हैं। 203. राजस तप
सत्कार मानपुजाऽर्थ, तपो दम्भेन चैव यत् । क्रियते तदिह प्रोक्तं, राजसं चलमध्रुवम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2205]
- भगवद्गीता 108 जो तप सत्कार, मान और पुजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए पाखण्ड भाव से किया जाता है, वह अनिश्चित तथा अस्थिर तप होता है, उसे 'राजस' तप कहते हैं।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 108