Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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368. मृत्यु नाणागमो मच्चुमुहस्स अस्थि ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2697] एवं [भाग 6 पृ. 59]
आचारांग - 1Ann31 मृत्यु के मुख में पड़े हुए प्राणी को मृत्यु न आए, यह कभी नहीं हो सकता। 369. शीलखण्डन से मृत्यु श्रेष्ठ वरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनम्,
न वापि भग्नं चिरसंचितं व्रतम् । वरं हि मृत्युः सुविशुद्ध चेतसो,
न वापि शीलं स्खलितस्य जीवितम् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2700]
- सूत्रकृतांग सटीक IAN भड़कती हुई आग में जलकर मर जाना श्रेष्ठ है, परन्तु कई जन्मों के बाद मिला हुआ संयमरूपी व्रत (रत्न) का खण्डन करना उचित नहीं है। जिसका अन्त:करण सब प्रकार से शुद्ध है, शीलरक्षा के लिए उसकी मृत्यु भी हो जाए तो श्रेष्ठ है, किन्तु खण्डित शील होकर अपमानपूर्वक संसार में जीना ठीक नहीं है। 370. करे कौन ? भरे कौन ?
अन्ने हरति तं वित्तं, कम्मी कम्मेहिं कच्चति । _ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2701] .
- सत्रकतांग - INA यथावसर संचित धन को तो दूसरे उड़ा देते हैं और संग्रही को अपने पापकर्मों का दुष्कर्म भोगना पड़ता है। 371. विषयासक्त
भोगे अवयक्खता, पडंति संसारसागरे घोरे । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 150